प्रिय,
मैं तो शब्द ढूंढ रहा हूं
कभी कभी आखें मूंद रहा हूं,
क्या लिख दूं मैं इस बारी
क्या क्या बचा है रे ओ प्यारी,
चलो शुरू से शुरुवात करता हूं
वो कहानी फिर एक बार लिखता हूं,
दुई तारीख और ठंडी रात
कंप कंपाता शरीर और बुखार के हालात,
पर मन में ढांढस की एक बात थी
मैं खुश था क्योंकि तुम मेरे साथ थी,
वो हवा का झोंका अंदर आए गुर्रा रहा था
और मैं तुम्हारी बाहों मे सिमटा जा रहा था,
अब तुम्हारी सुंदरता के बारे लिखूं तो फस जाऊंगा
उन बालों के आश्रय में बस जाऊंगा,
चलो बात तुम्हारे मन की करते है
उस तारीख को हुए जतन की करते है,
क्या बताया तुमने खुदको, मुझको अपनाने को?
क्या समझाया खुदको, मुझमें मिल जाने को?
जब तुम मेरे पास थी, और रात ढल रही थी
क्या तुम्हारी भी हृदय की गति सामान्य से तेज चल रही थी?
जैसे मेरी निगाहें तुम्हारे चेहरे से नही हट रही थी
जैसे मेरी उंगलियां तुम्हारी लतों पर अटक रही थी,
क्या तुम भी ये आकर्षण महसूस कर रही थी?
कभी तुम भी तो उस रात की बात बोलो
अपने मन की बातों को मेरे सामने खोलो।
अगले पत्र में मुझे इन सवालों के जवाब भेजना,
मैं उत्सुक और उत्साहित हूं ये याद रखना,
इन बातों के साथ इन शब्दों को विराम दे रहा हूं
मेरी प्रिय,
मैं तुम्हे बहुत याद कर रहा हूं।
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