रात यूं चलती है मुझमें मानो कोई नीरस काल
एकांत में जैसे शोर का वास
नींद से मेरी कभी बनी नहीं वैसे
अब तो होता भी नहीं कोई मलाल
तर्क - वितर्क तो मेरी ख़ुद से ही होती है
ना जाने और कितनी लंबी है ये रात
पलकें धीरे धीरे जब सिमटने लगे
और मन तुम्हारा पेशेवर धावक लगे
मन जब घर को भागे, घर तुम्हे काटने को तैयार
फिर सहर ( सुबह) का सत्कार
उदास मन , चंचल स्वभाव, फरेबी मुस्कान
लिए मुखौटा तैयार-
आज फिर कुछ हुआ किसे पता
वही मुखौटा आंखों में चमक फीकी मुस्कान
छोटी रातें लंबे थकान
किसे पता ?
किसे पता है भार मन में
पड़ी लकीरें दीवार मन के
थोड़ी चुप्पी हजार बातें
किसे पता ?
किसे पता हर हां में इनकार कितने
हर हंसी में तिरस्कार कितने
दो पल और सदियों सी लगे
किसे पता ?
किसे पता क्या है बातें
किसे पड़ी कौन जाने
सुई चुभे तलवार लागे
किसे पता??
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- पर मैं ठीक हूं
ऐसा लग रहा कुछ ऐसा हो जाए और मैं खो जाऊं
हकीक़त नही अब ख्वाब हो जाऊं
दूर दूर तक कोई नही पर अपने पास हो जाऊं
मैं सच में भाग जाना चाहती हूं
दिखावा, छलावा, बहकावा और लगाव से
अपने, सपने और तनाव से
नादान नहीं पर होशियारी ना कर पाऊं
ऐसा लग रहा कुछ ऐसा हो जाए और मैं तमाशा हो जाऊं
पलके झपके और ज़माना हो जाऊं
थकान सी होती है, मन का दौड़ मैं हार जाऊं
ऐसा लगा रहा कुछ ऐसा हो जाए और मैं याद ना आऊं
गिरूं कहीं और माटी हो जाऊं
हकीक़त नही अब ख्वाब हो जाऊं
दूर दूर तक कोई नही पर अपने पास हो जाऊं
और गलतियां मैं ऐसी कर जाऊं
हारूं ऐसे की मैं जीत जाऊं
ऐसा लग रहा कुछ ऐसा हो जाए और मैं राख हो जाऊं
आंखे बंद करूं और तमाम हो जाऊं
हकीक़त नही अब ख्वाब हो जाऊं
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कोई मुझसा भी तो होगा
जिसे लगता होगा कोई मुझसा तो मिले
जो मौन में बैठ सके, जो शोर में सुन सके
कोई मुझसा भी तो होगा जो मुझसे मिले
जो दर्द में रोता हो, जो वास्तव में जीता हो
हजारों के भीड़ में मुझे ढूंढता हो
जो कहता भी हो और सुनता भी हो
कोई मुझसा हो जो मेरा हो
जो रोकता भी हो, टोकता भी हो
जिसे लगता हो कोई मुझसा तो मिले जो मुझे चुने ।
जो बिखरा होगा, टूटता होगा
रात को रोकने की चाह और सुबह को टालता होगा
अकेले में जाने ख़ुद को समेटता होगा
कोई मुझे भी संभाले जैसे वो ख़ुद को संभालता होगा
थामा है हर तूफान मन की न जाने कैसे हाथ थामता होगा
कोई मुझसा भी तो होगा
जिसे लगता होगा कोई मुझसा तो होगा ।।
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देख रही हर एक को
तमाशा देख रहे कैसे
पराए तो पराए, अपने भी मजे ले रहे कैसे
देख रही हर एक को
तमाशा देख रहे कैसे
छल कपट पढ़ा किताबों में
अब देख रही लिबासों में
गले लगा कर कैसे घेर रहा कांटो में ।
वो बात कर रहे अपनेपन की
पलक तक ना झपकती उनकी
सौदा कर रहे मुझसे
वाणी में शहद लपेट कर ।।
मौन ना थी सदा
अब मन कुछ बोल ना रहा मुझसे
हैरान है देख के आँखें
दिमाग कैसे खेल रहा दिल से
देख रही हर एक को
तमाशा देख रहे कैसे
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बेचैन रहता है मन आज कल,फरेबी हंसी से छुपाएं कैसे
लेन देन किसका, क्या पाया क्या खोया समझाएं कैसे
लोग हँसेंगे मुझपे, रातें रोई कितनी दिखाएं कैसे
करवटें और रातों के रिश्ते की विडंबना
आंखो देखी हाल झुठलाएं कैसे
बेचैन रहता है मन आज कल बताएं कैसे
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उलझन [ दिल और दिमाग की ]
एक मन सगा तो दूजा बुरा क्यूं लगता है मेरा
तन मिट्टी तो मन माया क्यूं लगता मेरा
गैरों में ढूंढता अपनापन, क्यूं मैं ख़ुद हीं पराया मेरा
एक करुणा तो दूजा निर्मोह बड़ा
एक ऐसी जंग जहां शह और मात भी मेरा
एक मन सगा तो दूजा बुरा क्यूं लगता है मेरा |
मैं मेरा और मुझसे बैर भी मेरा
एक शान्त तो दूजा शातिर बड़ा
मै मित्र मैं ही शत्रु मेरा
एक मन सगा तो दूजा बुरा क्यूं लगता है मेरा||
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अच्छा तो ऐसा करो की कुछ बोलो मत
क्या खामोशी इतनी भी बुरी है ?
या ख़ामोशी में गूंज भरी है
क्या शोर पसंद है?
या सुनने की चाह नही बची है
किताबें अच्छी लगती है?
या जवाब ढूंढते हो|
अच्छा सुनो!
ऐसा करो की कुछ बोलो मत
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इन दिनों काफ़ी व्यस्त हूं ख़ुद में
क्यूं, क्या, कब, कैसे इन सब से पराई हूं मैं
शोर में भी ख़ुद को सुनाई दे रही हूं मैं
वास्तव में ऐसा लग रहा ख़ुद को जी रही हूं मैं
हर बात समझे जाने की नही रही चाह
कुछ बातें उलझी छोड़ देती हूं
अब थोड़ी चुप रहती हूं मैं
वास्तव में इन दिनों काफ़ी व्यस्त हूं मैं
हर बात में हामी नही होती मुझसे
अब नाराज़गी नही खलती मुझे
शायद मैं हो रही स्वार्थी
अपने आप में हीं मैं
वास्तव में इन दिनों काफ़ी व्यस्त हूं मैं
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कौन है तू, कौन है तेरा ?
खयालों में दौंड़ना, आंखों में तैरना
क्या लगता है कौन है तेरा?
क्या चाहिए, क्यूं चाहिए
ये सवाल कैसा
क्या है अंदर चल रहा मेरे कोई क्यूं नही पूछता
क्या लगता है कौन है तेरा
अंत तक तेरे साथ तू है
हर किताब हर अनुभव हर परीक्षा हर व्यवहार कहता
सब तेरे तो तेरा क्यूं नही होता
सब छूट रहा क्यूं पूछता
हाथ थाम के कोई क्यूं नही रोकता
क्या चाहिए, क्यूं चाहिए ????
ये सवाल कैसा
क्या है अंदर चल रहा मेरे कोई क्यूं नही पूछता
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