जब भी मैं उसकी नम ,शरबती, चमकदार आंखों को देखती हूँ, तो जैसे मेरे भीतर की कठोर स्त्री धीरे-धीरे पिघलने लगती है...
उसकी आंखों में उमड़े सभी सवाल जैसे मेरे भीतर अपने जवाब ढूढ़ते हैं....-
पूर्णिमा के चांंद से तुम हर रोज़ मेरी रातों को रोशन करने वालें ,यूं जो अब मुझसे अपना दामन बचा कर चलतें हो मेरी रातें अब अमावस सी काली हो गई है...
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इंसान सुकून की तलाश में बहुत दूर तक भटकता है,और आखिर में थक कर जब वो नउम्मीदी से भर जाता है ,तब वो इस बात पर भी सब्र कर लेता है कि उसे अपनी पसंद कुछ भी न मिला...
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इंसान के भीतर सारा जग जीतने की होती है ताकत, जिस ताकत को कम करने के लिए ईश्वर उत्पन्न करता है मानव के भीतर "आत्मग्लानि" जो उसे एहसास कराती है उसकी कमज़ोरी का....आत्मग्लानि से भरा इंसान कभी फिर कर नहीं पाता कुछ बेहतर....
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जब स्त्री रोटियां बनाती है तो जैसे वो एक क्रांति लगती है अपने नरम हाथों से गोल -गोल रोटियां बनाती स्त्री ऐसे ही बना देती है पूरा परिवार संसार, तेज़ आंच पर जब पकाती है स्त्री रोटी तो उस आंच में जलती है उसकी अनेक इच्छाएं जो बन कर वेदना फूल जाती है उस रोटी की तरह जिस फूली रोटी पर एक के बाद एक रोटियां रख स्त्री उसे दबा देती है...और जब वो आखिर में बची उस ठंडी रोटी को अपने हिस्से में रखती है तो वो उस आखिरी रोटी के साथ सब कुछ खुद में समा लेती है और फिर नहीं होती कोई क्रांति....
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होठों पर मुस्कान, दिलों में खंजर लिए मिलते है लोग,
ये वो ज़माना है जहां ज़हन में बदले का मंजर लिए घूमते है लोग ....-
स्त्री का सबसे बड़ा दुश्मन उसका जिस्म है जिसमें उलझकर पुरुष कभी उसके चित में झांक ही नहीं पता वो बदन की उलझन से निकल कभी उसके मन की गांठों को खोल ही नहीं पाता ....
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तुम यारों संग शहर भर घूम डीजे पर थिरकते हुए जाम से जाम टकरा कर त्यौहार मानने वालें प्रिये,
हम त्यौहारों में घर रह कर परिवार की पंसद का व्यंजन बानने वालें प्रिये,
अपना मेल हो कैसे सभंव प्रिय....-
बिछड़ना और अंत हो जाना कितना खूबसूरत होता है ये पता चलता है पतझड़ में गिरे उन पत्तों को देख ,जो अपने अंत से कर जाते है 'नया सृजन'
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ऐ मेरे चांंद आ बैठ मेरे करीब,तारों की भीड़ से निकल धरा पर एकांत में मेरे समीप की हम तुझे रंग दे अपने रंग में
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