कौन तुम और कौन मैं?
क्या, क्यों और कैसे हैं?
सवाल में उलझे जीवन के
अंत में सब बस शून्य हैं।
क्रोध, लोभ, मोह, माया
जिसमें पूरा जीवन बिताया।
इन सब का 'अर्थ' नहीं कुछ
सब पंच - तत्व में समाया।
जो रहता शेष वो तो केवल
मानवता और नेक कर्म है।
यही जीवन का भाव और
शायद यही जीवन का मर्म है।-
यदि रामायण कलियुग में होता तो??????
दशरथ के मृत्यु के लिए भरत केकई को नहीं
बल्कि राम को ही दोष देते.....
चरण पादुका तो दूर वापस आने पर भी वनवास से
बड़े भाई को वो अपमानित करते...
बड़ा बेटा बड़ा हो जाता छोटे के जन्म होते ही...
लेता ख़ुद के साथ सदा छोटे की जिम्मेदारी भी।
पर जब बड़ा होता छोटा तो भूल जाता वो स्नेह सभी...
उसे दिखानी होती है बड़बोली सोच और कृत्य अपनी।
पर समय चक्र न्याय करता है एक दिन सबके कर्मों की....
फल से पता चल जाता है कौन, कब और कितना सही।-
गौर करें कि ख़ुद की सुकून के सबब में कभी
किसी और के लिए ख़लल ना बनें ।
ग़ुमनामी के अँधेरे में भटका ले जाएँ शख्सियत को
-इस क़दर गुलाम -ऐ -बे -अकल ना बनें ।-
एक आपकी कमी से सब वीरान हो गया है....
घर में चहल-पहल है पर अंदर सुनसान हो गई है..
एक आपकी खामोशी से मन मौन हो गया है....
आपकी कृपा छाया जो जीवन से गौण हो गई है...
आप ईश्वर की सच्ची 'कृपा' हम सब पर...
आप नहीं तो हर 'आनंद' ही अपूर्ण हो गया है...
सब सामान्य सा करने की कोशिश जारी है बाबा!
पर सच तो ये है कि अन्तर्मन शून्य हो गया है....
आप हैं हम सब में ... हमारे तनिक से
उन गुनो में जो हमें आपके सानिध्य से मिला है....
आपके आदर्शों और संयम-संबल से ही तो
इस घर का हरा-भरा बाग खिला है....
अपना स्नेह हम पर यू ही बनाए रखियेगा देवलोक से भी ....
बस यहीं ईश्वर और आपसे प्रार्थना है....
लूं अगर जन्म दोबारा तो आपकी ही पोती बनूं...
बस इतनी सी कामना है...-
बोलते हो ठीक हैं पर ठीक लगते नहीं हो!
ऐसी क्या बात है कि हम से कहते नहीं हो?-
देखा है जो सपना उसको सच करने की हिम्मत कर।
पक्षी नहीं क्या हुआ तू हौसलों से अपने उड़ान भर।
पार करने को सारी बाधाएं तू साहस की डोर पकड़।
कठिन हुआ तो क्या? तुम लक्ष्य साधो अर्जुन बन कर।
मेहनत की स्याही से अपनी क़ामयाबी का इतिहास रच।
व्यक्तित्व को अपने बना ले तू जल सा सरल और सहज।
आसान नहीं ये रंगमंच जीवन का, किरदार अपना बना प्रखर।
हँसते -हँसाते काट ले प्यारे छोटी सी तो है जीवन डगर।-
बंधना ख़ुद में है जीवन में
एक कविता के निर्माण का होना।
वो जो अनभिज्ञ हैं अलंकार और
छदों की रचना में...
वो भी प्रेम के अनन्य पलों
को जी कर बन जाते हैं कवि।
जो कह ना पाते हैं खुल कर
ना जानते हैं जताना हक़ को....
वो भी व्यक्त कर देतें हैं भावों को
कागज़ पे स्याही भर कर।-
ऐसा भी एक सफ़र होना चाहिए।
जब मंज़िल तक पहुंचने की ना हो जल्दी
बस हर घड़ी को यादगार बनाते लम्हों के साथ
खुद ही ख़ुद का हमसफर होना चाहिए।
जब शोर नहीं कोई भागा दौर नहीं
कहीं पास से आते झरने का
मध्यम स्वर होना चाहिए।
जहाँ ज़मीन हो हरियाली भरी
और दृष्टिगत क्षितिज पर मिलता
धरती अम्बर होना चाहिए।-
इंतज़ार, उमंग, बेचैनी,
रुका हुआ पल,
सब जाएगा याकायक ठहर.....
तुम जब भी आओगे।
मुस्कान, उल्लास,
पूर्णता का अहसास,
सब भावों का होगा संगम .....
तुम जब भी आओगे।
मैं, तुम और ये सम्पूर्ण सृष्टि,
कितना मधुर होगा ये मिलन,
सब हो जाएँगे पूर्ण उसी क्षण....
तुम जब भी आओगे।-