क्या?
ज़हन मे उलझे कई सवाल हैं मेरे,
सारी उलझनों को सुलझाओगे क्या?
माना खफा खफा से हो हमसे,
फिर शाम की चाय पे आ पाओगे क्या?
शाम की चाय पे आ पाओगे क्या।
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लफ़्ज़ों से कहनी पड़ेगी क्या,
अपनी नाराजगी हमें?
तुम एक नजर देख के समझ जाओ ना।
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ख्यालों मे आते हो तुम
जब अंजान से सड़को पे ,
बेमंजिले रास्तो को तय करती हुँ,
तो ख्यालों मे आते हो तुम।
जब तुम्हारे लिबास को खुद से
लपेटती हुँ,
तो ख्यालों मे आते हो तुम
जब तुम्हारे पसंद के दुपट्टे को,
गले से लगाती हूँ,
तो ख्यालों मे आते हो तुम।
अमावस की रात मे आंखो की पलकों को,
आंसुओं से नम करती हूँ,
तो ख्यालों मे आते हो तुम।
बेवक़्त, बेवजह, हरपल, हर दफा,
हाँ, ख्यालों मे आते हो तुम।
मेरे ख्यालों मे आते हो तुम।-
नहीं,
सजने सवरने का शौख नही हमें।
हाँ,
काली बिंदी की बात कुछ और है।-
बिना कहे, सब कहने का जो ये हुनर है ना तुममे
ये एक कच्ची डोर की तरह,
तेरी ओर खिचती है मुझे।-
बेशक़ लफ़्जो से इजहार ना करना तुम,
अपने इश्क़ का
आँखों की भी अपनी ही भाषा होती है ।-
कही ठहरी सी हूँ मैं,
कुछ गुम सी हूँ
ये तेरे होने का एहसास है,
या तुझे खोने का डर ।
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खुद को तुझसे दूर रखती थी,
माना डर था मुझे, कहीं फिर से टूट ना जाऊँ।
पर अब, वो खुले आसमां के नीचे
जब तुम्हारे कंधे पे सर रखती हूँ, तो लगता है बस
इसी की तो कमी थी......
की ये सुकून जो इस लम्हे मे है वो कही खो सा गया था
पर अब जब तुम साथ हो तो
दूसरी कोई ख्वाहिश खत्म सी हो गयी है,
ये लम्हा खुद ही खुद मे मुकम्मल हो गया हो
कि जैसे सौंफ को उसकी मिश्री मिल गयी हो।
कि जैसे सौंफ को उसकी मिश्री मिल गयी हो।-