Anjali ojha   (Lekhani)
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Joined 7 June 2018


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28 MAR AT 23:11

सड़क पर गाड़ियों के बीच एक कुतिया भागती दिखी,
उसकी आँखें मुझसे क्षणभर को टकराईं,
क्योंकि मेरी आँखें उसे एकटक ताक रही थी,
और उसकी लोगों को!

उसकी आँखों में एक पतली परत थी आँसू की,
डर की इक झीनी सी झिल्ली भी चिपकी हुई थी,
तनिक दया की याचना रुक-रुककर कौंध रही थी,
हड्डियों पर जरा सी चमड़ी का पर्दा था,
कहीं कुछ ज्यादा था तो था उसके काले थूथन पर पसरी मूकता

विवशता का ऐसा रूप और कहीं नहीं देखा,
सड़क के दूसरे किनारे पर चार पिल्ले मिमियां रहे थे,
भूख से बिलबिला रहे थे,
लेकिन वो जरा से ढांचे की उनकी माँ,
गाड़ियों के चक्रव्यूह में फंसीं पड़ी थी,
दो ओर दो विद्रूपताएँ,
दो याचनाएँ,
दोनों मार्मिक,
दोनों हृदयाघाती!

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अंजलि ओझा

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23 FEB AT 12:11

पतझड़ के पेड़ आसमां में की गई कलमकारी से लगते हैं।
जिनपर बैठा दिए जाते हैं कुछ रंग-बिरंगे पंछी, जैसे जीवन के दु:ख को ढंकने के लिए हम अपने चेहरे पर सजाते हैं मुस्कुराहटें!

पतझड़ की शाखाओं पर बैठे पंछियों के फुर्र होते ही सूखी पत्तियाँ झर-झर झरने लगती हैं, और पेड़ को याद आ जाती है उनकी दयनीय अवस्था, मानों मुस्कराहट रूठकर दूर जा रही हो और हम दु:ख की ओर पुनः गमन कर रहे हों।

अंजलि ओझा 'लेखनी'

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24 JAN AT 22:03

वो जो‌ दूर बिखरा है,
मेरा ही हिस्सा है,
खुद को बनाने में,
मैंने खुद को तोड़ा भी बहुत है।

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24 JAN AT 21:58

सब दिन कट ही जाते हैं,
लेकिन याद रह जाती हैं,
उन दिनों की मुश्किलें,
तकलीफें और लड़ाइयाँ।

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22 AUG 2024 AT 20:53

हर दु:ख का अंत नहीं होता,
कतिपय दु:ख चिरंजीवी होते हैं।

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22 AUG 2024 AT 20:51

न दिन के कहकहे थे न रातों में मजलिसें,
फुरसत में भी आदमी हम बेकार ठहरे।
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29 JUN 2024 AT 12:44

मैं डूबने भी जाऊं तो बचा लेता है मुझे,
उसके काबू में हैं समंदर, साहिल, लहरें सब।

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23 JUN 2024 AT 21:09

कितनी बारीकी से पढ़ता है वो चेहरा मेरा,
उसकी सोच ने मेरी शक्ल अख्तियार कर रखी है।

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10 JUN 2024 AT 23:55

आसमां सितारों की टूटन पर बेहिसाब रोया,
कोई अपना यूं भी नहीं जाना चाहिए आख़िर!

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28 APR 2024 AT 14:20

दुनिया के आंकने के बाद अंदाजा हुआ,
कितनी ज्यादा कीमत लगाई थी मैंने खुद की।
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