सड़क पर गाड़ियों के बीच एक कुतिया भागती दिखी,
उसकी आँखें मुझसे क्षणभर को टकराईं,
क्योंकि मेरी आँखें उसे एकटक ताक रही थी,
और उसकी लोगों को!
उसकी आँखों में एक पतली परत थी आँसू की,
डर की इक झीनी सी झिल्ली भी चिपकी हुई थी,
तनिक दया की याचना रुक-रुककर कौंध रही थी,
हड्डियों पर जरा सी चमड़ी का पर्दा था,
कहीं कुछ ज्यादा था तो था उसके काले थूथन पर पसरी मूकता
विवशता का ऐसा रूप और कहीं नहीं देखा,
सड़क के दूसरे किनारे पर चार पिल्ले मिमियां रहे थे,
भूख से बिलबिला रहे थे,
लेकिन वो जरा से ढांचे की उनकी माँ,
गाड़ियों के चक्रव्यूह में फंसीं पड़ी थी,
दो ओर दो विद्रूपताएँ,
दो याचनाएँ,
दोनों मार्मिक,
दोनों हृदयाघाती!
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अंजलि ओझा
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तुम गंगा आरती, मैं लहर मनचली। "
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पतझड़ के पेड़ आसमां में की गई कलमकारी से लगते हैं।
जिनपर बैठा दिए जाते हैं कुछ रंग-बिरंगे पंछी, जैसे जीवन के दु:ख को ढंकने के लिए हम अपने चेहरे पर सजाते हैं मुस्कुराहटें!
पतझड़ की शाखाओं पर बैठे पंछियों के फुर्र होते ही सूखी पत्तियाँ झर-झर झरने लगती हैं, और पेड़ को याद आ जाती है उनकी दयनीय अवस्था, मानों मुस्कराहट रूठकर दूर जा रही हो और हम दु:ख की ओर पुनः गमन कर रहे हों।
अंजलि ओझा 'लेखनी'
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वो जो दूर बिखरा है,
मेरा ही हिस्सा है,
खुद को बनाने में,
मैंने खुद को तोड़ा भी बहुत है।
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सब दिन कट ही जाते हैं,
लेकिन याद रह जाती हैं,
उन दिनों की मुश्किलें,
तकलीफें और लड़ाइयाँ।
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न दिन के कहकहे थे न रातों में मजलिसें,
फुरसत में भी आदमी हम बेकार ठहरे।
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मैं डूबने भी जाऊं तो बचा लेता है मुझे,
उसके काबू में हैं समंदर, साहिल, लहरें सब।-
कितनी बारीकी से पढ़ता है वो चेहरा मेरा,
उसकी सोच ने मेरी शक्ल अख्तियार कर रखी है।-
आसमां सितारों की टूटन पर बेहिसाब रोया,
कोई अपना यूं भी नहीं जाना चाहिए आख़िर!-
दुनिया के आंकने के बाद अंदाजा हुआ,
कितनी ज्यादा कीमत लगाई थी मैंने खुद की।
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