दृष्टि सबको मिली हुई है
बस नज़र-नज़र का अंतर है
समझ भी सबको देता मालिक
बस समझ समझ का फेर है
कोई कम में ख़ुशी मना लेता
किसी के पास बहुत अंबार लगा
फिर भी उदासी का आलम फैला
चहूँ ओर है
यही तो समझ का फेर है
झूठ को सच मानना ,सच को झूठ
हरेक की आँख पर लगा कौन सा नम्बर है
यही समझ का फेर है
दौड़े सब क्या-क्या कमाने को
इज़्ज़त दौलत मान शोहरत
इन सबके लिए रोये तड़पे बहुत
"अनिता " जाता हर कोई खाली ही है
हाँ ,यही समझ का फेर है
जाग सके तो मनवा जाग ।
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