शहर की रफ़्तार से ना कोई गिला है मुझे,
बस तेरी मोहब्बत की तसल्ली चाहिए मुझे।-
तेरी आँखों में जो शिद्दत का प्यार देखा है,
उसमें हर दर्द का भी इक इज़हार देखा है।
तेरे लफ़्ज़ों में बसी है इक दिलकश सी नर्मी,
तेरे सन्नाटों में भी मीठा सा संसार देखा है।
रूठ कर भी तू जब दिल के पास आती है,
तेरी अदाओं में फिर वही प्यार देखा है।
इश्क़ में तेरे हम खुद को खो बैठे,
तेरी धड़कनों में अपना करार देखा है।
साथ तेरे हर ग़म भी खुशी सा लगे,
तेरी चाहत में इक नया बहार देखा है।-
मौसम की मांग है, बरसात हो रही है,
दिल में तेरी यादों की बात हो रही है।
बूंदों की सरगम में तेरा नाम बसा है,
हर कतरा जैसे तुझसे ही भीगा सा है।
भीगी पलकें, भीगा आँगन, भीगा है समां,
तेरे बिना अधूरी लगे ये बारिश की रवां।
चलो फिर किसी पेड़ की छांव में मिलें,
जहाँ भीगें तन नहीं, सिर्फ रूहें खिलें।-
रिश्तों की डोर नाज़ुक बहुत होती है,
एहसास की खुशबू से ही महकती है।
कभी ज़रा सी बात में उलझ भी जाती,
कभी बिना कहे भी जुड़ सी जाती।
तूफ़ानों में भी जिसने थामा है हाथ,
वही डोर बनती है उम्र भर का साथ।
शिकवे शिकायतें तो आती जाती हैं,
मगर मोहब्बत की राहें सदा निभाती हैं।
मत छोड़ना यूँ कभी इस डोर को,
ये दिल से दिल का सिलसिला कहलाती है।-
तेरे एक स्पर्श से खिल उठती है रुतें सारी,
तेरे संग ही तो जिंदगानी लगती है प्यारी।-
दादी के हाथों की रोटी में घी की मिठास होती,
नानी के प्रेम में बचपन की सौगात होती।
दादी कहती "खा बेटा, ताकत आएगी",
नानी कहती "खा रे लल्ला, नजर न लगेगी।"
दोनों के हाथों की महक में बसता है प्यार,
हर निवाले में झलकता है उनका संसार।
चूल्हे की आंच में पकता था अपनापन,
थाली में सजे हर कौर में था मन का धन।
दादी की कहानियाँ, नानी की मीठी बात,
दोनों के हाथों के खाने में बसती है सौगात।
आज भी उस स्वाद को दिल तरस जाता है,
उनके बिना हर पकवान अधूरा सा रह जाता है।-
तेरे हाथों में गुलदस्ता जब भी सजता है,
हर फूल में तेरा ही एहसास महकता है।
तेरी उंगलियों की नर्मी से भीगी कली,
जैसे मेरे दिल की हर धड़कन चली।-
तेरे बिना ये दिल अधूरा सा लगता है,
तेरी हँसी में ही मेरा जहाँ बसता है।
हर सुबह तेरा ख्याल साथ लाती है,
हर शाम तेरी यादों में खो जाती है।
तेरी बातों में है एक मीठी सी कशिश,
तेरी नज़रों में छुपी है मोहब्बत की बारिश।
कभी न दूर होना तू इस दिल से,
तेरे प्यार में ही बसी है मेरी हर साँस में।-
मेरे क़ातिल, मेरे अपने ही निकल आए,
जिनसे उम्मीदें थीं, वही ज़हर पिला आए।
छाँव समझ के जिनके साये में बैठा था,
वक़्त पड़ा तो वही शाखें भी जला आए।
लबों पे नाम था जिनका मोहब्बत में,
वो ही दास्तां मेरी सरे-बाज़ार सुना आए।
कैसा अजीब दस्तूर है इस दुनिया का,
अपने ही खंजर से ज़ख़्म नया दे आए।
अब किससे कहें किस दर्द की है कहानी,
जो अपने थे, वही दिल को रुला आए।-
तू मिल जाए बस इतनी सी आरज़ू है,
तुझे ढूंढते हैं अब भी उसी जुनून में।-