ना कभी वक्त रुकता गुज़र जाता है।
देखते देखते कल बदल जाता है
खूब आता है होना बड़ा बच्चे को
गिरता है उठता है और संभल जाता है।
रोजी-रोटी की ये हाय रे बेबसी
गाँव से आदमी शहर चल जाता है।
कैसे खुशहाल भी हो सके इंसाँ ये
दिल से ना द्वेष का जब जहर जाता है।
वह भला आदमी है चरागाँ 'अनिल'
करता रोशन जहाँ आप जल जाता है।-
बैठी भावों की हर डाली,
मुझे लुभाती, दौड़ाती
चंचल यह मतवाली,
छूना चाहूं, न छू पाऊ... read more
2112-2121-2112-2
बदली, हवा, धूप, सर्दी का मजा तुझसे
बच्चा कभी बूढ़ा ज़िंदगी हुआ तुझसे।
( ग़ज़ल अनुशीर्षक में )-
बातों को कुछ भी ना दिल पे लाते हुए
जीते हम जा रहे मुस्कुराते हुए।
जीना इक शौक है और कुछ भी नहीं
गीत चल कोई तू गुनगुनाते हुए।
जग ने सब कितना उलझा रखा है यहाँ
मामले को दबाते उठाते हुए।
रुसवा है कोई क्यूँ फिर पशेमाँ नहीं
कितने घर धूँ जले दिल जलाते हुए।
हुश्न पाबंद हो प्यार में जो अगर
हिज्र देखे है बस जान जाते हुए।
जीता है जो बढ़ा अपने पथ पर अडिग
आशा के दीप डग में जलाते हुए।
रात पर ज़ुल्फ़ें फैलाती है चांदनी
चाँद विहँसा 'अनिल' मन रिझाते हुए।
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जीने का सुख इस पार 'अनिल'
उस पार भी सुख की नींद,
फिर क्यूँ अनहोनी की
आशंकाओं से डर लगता है।
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ए ज़िंदगी, तुझसे निभाना क्या
आखिर तिरे नखरे उठाना क्या।
आँसू जो झरा आँखों से ज़ुदा
तेरा परिचय और बताना क्या।
मीठी सी छुरी मिसरी की ज़बां
समझा तुझे है ये ज़माना क्या।
घुट घुट मरे महफ़िल में दिलजले
तेरा भी ये महफ़िल लगाना क्या।
आंखें जो खुली और हुए फ़ना
पलकों पे वो सपने बिठाना क्या।
बढ़ते हैं कदम छोड़ते निशाँ
तेरी कहाँ मंज़िल ठिकाना क्या।
पागल वो खड़ा बीच रास्ते
फिर उससे गुज़र आना-जाना क्या। ...Anil Singh
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मुस्कुरा कर जी तो कोई ज़िंदगी
जी भी तो क्या जी रो कोई ज़िंदगी।
बस बड़ा तन हो गया लेकिन न मन
कहते ना हैं इसको कोई ज़िंदगी।
घूमे जो चढ़ कर पिताजी के कंधे
यूँ लगा जैसे हो कोई ज़िंदगी।
दुख है आख़िर क्या किसे क्या ये ख़बर
साये बाबूजी के सो कोई ज़िंदगी।
पेड़ की डाली के पत्ते फूल फल
सर उचक पाये वो कोई ज़िंदगी।
बस्ता भारी पीठ पर स्कूल का
ढ़ोते पापा जी वो जो कोई ज़िंदगी।
दोपहर छत धूप अंधेरा रात घर
दिन फसल खेतों में बो कोई ज़िंदगी।
देश पर जो मिट जिए हैं ज़िंदगी
हो अमर मृत्यु तो वो कोई ज़िंदगी।-
हैं कुछ रहे यूं निभा जिंदगी के साथ
रो मुस्कुरा रहे दरियादिली के साथ।
है पग तले जमीं और सर पे आसमान
हैं घूमते जहाँ आवारगी के साथ।
ये सोचते हैं कि फुर्सत के होते दिन
पलों को जीते कि जिंदादिली के साथ।
जो दिल से खेल के दिल का हुआ मिरे
जला रहा मुझे वो दिल लगी के साथ।
यहां वहां किसे मैं ढ़ूढ़ता फिरा
रहा वो साथ मिरे बंदगी के साथ।
जरा ऐंठा सा ये शहर किस गुमाँ पे
था गाँव प्यारा मिरा सादगी के साथ।
'अनिल' मुकाम पे चल के जो आ गया
जहान छोड़ा चला जिंदगी के साथ।-
हर हिचकी पर सोचूँ कौन अपना जिसको भूला हूं
किसके आशीष की बारिश में सुख से इतना गिला हूं।
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कितनी सारी बातों के आँसू , कितने सारे दर्द
ए जिंदगी, कितनी रखी तूने यादें संभाल के।
....Anil Singh
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