17 MAY 2018 AT 13:07

ख्वाबो का मुसाफ़िर
जिंदगी तेरी अदालत में हाज़िर,
माफ कर या दे सज़ा, हाथ मे तेरे
मेरा मुंसिफ है तू आखिर।
ये कैसा है तारीखों का सिलसिला,
सज़ा ए मौत दे या कर रिहा।
इतना ना सता के बन जाऊं काफ़िर
गुनाह बस इतना है मेरा
मैं हूं, ख्वाबो का मुसाफ़िर।

- अनिल