जो जटिल में ही लगाया जाता आ रहा है
लेकिन आसान में नहीं !
क्योंकि मन के लिए आसान ही सबसे कठिन है...-
तीनों है तो सब कुछ मुमकिन है।
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बिश्नोई समाज
ग्लोबल वार्मिंग और अन्य असंख्य पर्यावरणीय मुद्दों पर आज वैज्ञानिक और बुद्धिजीवियों द्वारा शोध और समाधान सुझाये जा रहे हैं, वहीं बिश्नोई समाज के संस्थापक गुरु जाम्भोजी ने अपनी दूरदृष्टि का परिचय देते हुए 29 नियम सुझाए। देश-काल-परिस्थित के अनुसार मूल्यों में परिवर्तन होता रहा हैं
लेकिन गुरुदेव द्वारा उपदेशित अधिकांश मूल्य आज दिन तक प्रासंगिक बने हुए जिनमें से कुछ की बात करें तो-
"जीव दया पालणी,रुंख लीलो ना घावे"
समाज के देवी और सज्जन इन मूल्यों को इतनी गहराई से जीवन में उतार चुके हैं कि राजा अभय सिंह के शासन काल में
खेजङी वृक्षों के रक्षार्थ 363 लोगों ने जीवन की आहूति देकर स्वयं को और गुरुदेव के मूल्यों को अमर कर दिया।
आज भी गाँव के किसी घर में कोई माँ अपनी छाती से लगाकर अपने बच्चे को स्तनपान करवाती उसी के भांति हिरण के नवजात बछङे का भी पालन-पोषण करती है... तो कहीं किसी सज्जन द्वारा जीवों की रक्षा में अपनी जान की बाजी लगा दी जाती है और शिकारी की गोली के आगे अपना सीना तान दिया जाता है... कुछ ऐसा है बिश्नोई समाज जो जान हथेली पर लेकर चलता तब जाकर हिरण-मोर उनके घरों और खेतों की शोभा बढाते हैं,निर्बाध विचरण करते हैं...
अनिल एम. साहू-
सिंदूर मिटाया था!
किसी अबला और निहत्थे को निशाना बनाया था...
विवाहिता का सिंदूर मिटाया था...
धर्म के नाम की चिंगारी लगा के गया था...
ये क्यों भूल गया
नारी ने जब जब तय किया है बदला
तब केश धोने के लिए रक्त से, महाभारत हो गई...
तो तुम क्या हो नालायकों !
तुम अब जानोगे सिंदूर की अहमियत क्या होती है
सशक्त नारी की पहचान क्या होती है...
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क्या हो रहा है दुनिया में जो तुम्हें नहीं मालूम
किस गति से चल रहा है प्रतिद्वंद्वी जो तुम से आगे है
किस अफ़वाह के शिकार हो जिसका तुम्हें पता नहीं
गौर से देखो दुनिया को कहीं तुम गैरों से घिरे तो नहीं?
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जिस के एक-एक शब्द में शक्ति है
कि वह जन-जन को सज्जन बना दे...
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जिन्होंने धूप को चूमने नहीं दिया,
उन्हें चक के थूक दिया जाता है...-
जीवन में उतने आनंदमय रहो,
जैसे पानी में क्रीङा करते हंस...
जीवन में उतने पाक रहो,
जैसे पत्ते पे ओस की बूंद...
जीवन को उतना आजाद रखो,
जैसे खुले आसमां में उङता बाज...
जीवन में खुद से इतने बफादार रहो,
जैसे आप के घर का टोमी...
जीवन में अपने अंदर की बात ऐसे कहो,
जैसे यहां आपका कोई स्थायी अपना नहीं...
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जरा रुको!
सोचो, किस दिशा में भाग रहे हो?
देखो, कौन है और होङ में?
सुनो, कितने पैरो की चहलकदमी है?
मनन करो, क्या तुम जहां हो वहीं की चाह थी?-
जो पहाङ के पत्थरों को भी चीर देती है...
जो विदूर चकवे के प्राण भी निगल लेती है...
जो बगुले को भी अकेले जीने नहीं देती...
भला तुम हो ही क्या!-
ये कहने से पहले जानना चाहूँगा बचपन का सपना तुम्हारा...
सुनना चाहूँगा उस सपने के लिए यात्रा के किस्से सारे...
कोई जल्दबाजी नहीं है मुझे जानने की !
क्योंकि सह पथिक हूं मैं तुम्हारा...
आंनद ही सफर का है;
जब सह पथिक तुम-सा हो
बेशक तुम अराम से कहो
क्योंकि मैं नहीं भागना चाहता...
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