परिस्थितियां सबकी सदा एक सी नहीं रहतीं इतना जानो
अनुकूल है समय तो अहंकार नहीं अहसान मानो।-
बस बहुत हुआ, अब नहीं होता
शब्दों की चिरौरी कर कर के हारी
रूठे हुए को मनाना मुश्किल है
अब मुस्कुरा कर जाने देना ही बेहतर है।
-
मैंने पूछा, "पत्थर इतना सख्त क्यों"
मां ने कहा, "सहते सहते"
मैंने कहा "नदी इतनी तरल क्यों"
मां बोली, "बहते बहते"
और तभी मैंने खुद को पत्थर में बदलते देखा
और मां की आंखें नदी बनकर बहने लगीं.....-
चलो आज एक प्रश्न करें खुद से...
शायद प्रश्न में ही उत्तर भी मिल जाएं.....
शेष अनुशीर्षक में....-
गर्व से कम नहीं है जब बेटी से कोई कहता है कि तुम अपने पिता की तरह हो....
पिता की सम्पत्ति में अधिकार मिलने से कहीं ज्यादा होता है ये....-
सुनो.....
बहुत कुछ बनने की कवायद में
तुम बन जाना
केवल एक अच्छा पुत्र
और एक अच्छा पिता.....
कर्त्तव्य और ममत्व से आबद्ध
तुम्हें नहीं बनना पड़ेगा
और कुछ भी....
तुम स्वत: हो जाओगे वो सब
जो तुम बनना चाहते हो।
एक अच्छा इंसान, अच्छा पति
या अच्छा प्रेमी.....-
गणित में एक सवाल पढ़ा था,
एक कुएं का मेंढक जो रोज़ तीन मीटर
ऊपर छलांग लगाता पर
दो मीटर नीचे फिसल जाता।
जिंदगी उस एक सवाल पर ही
अटक गई है जैसे,
उलझ गई उसी गणित में।
अनुशीर्षक पढ़िए...-
चलो अच्छा है कि अब उनको मोहब्बत नहीं है
हमको भी अब उनसे शिकायत नहीं है
टूट कर ज़र्रा ज़र्रा बिखर हम भी सकते थे
जिम्मेदारियों से लेकिन हमको फ़ुरसत नहीं है।-
कहते कहते क्यों रुक गए अचानक
जैसे मुद्दत से बहुत सह रहे थे आप।
कह दीजिए जो दिल में है
रुकी हुई बातें बैठती जाती हैं गहरी और गहरी
ले लेती हैं रूप ज्वालामुखी का
जो निगल जाती है संवेदनाएं....
तो बेफिक्री से कहिए क्या कह रहे थे आप
सहने के नाम पर क्या क्या सह रहे थे आप
सुनने के लिए मैं हूं ना आपके साथ।
-