"मैंने चाहा हर वक्त मन का होना.....मिला नहीं।"
(लघु कथा)-
मैंने उसे जाने दिया
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मन को संभालते हुए,
मैंने उसे जाने दिया।
हृदय को लुभाता स्नेह,
रखा नहीं जाने दिया।
बचते-बचाते, छुपाते उसे,
हठता को भी जाने दिया।
चिंताओं की शोर गूंज को,
क्षितिज में मिल जाने दिया।
उस ईश्वर की कृपा के लिए,
जिसने हमे उन्मुक्त रखा है।
अपनी कैद में रखी पंछी,
मैंने नभ में उड़ जाने दिया।-
दिन की मसरूफियत ने संभाले रखा था..
कम्भख्त रात, आज फिर से सोने नहीं देगी...-
मैंने जब जब लिखना चाहा,
दौड़ती भागती संसार को चाहा,
उपवन में लह लहाते वृक्षों को लिखा,
लिखा पेड़ों से पत्ते अलगाते पतझड़,
बरगद के लताओं में झूलते बचपन लिखा,
लिखा रंग बिरंगी तितलियों में भवरें का सादापन,
चीखती चिल्लाती गुंजो को लिखा,
लिखा बदहवास बैठे मन का सूनापन,
कप-कपाती सर्द हवाओं में,
अंगीठी की गर्म-जोशी चाही,
कहानियां बड़ी सुलझी होती है
तो मैंने हमेशा कविताएं लिखी,
तुम्हें नहीं।-
अब और लिखा ,
तो बच नहीं पाएगा।
अबके जो डूबा,
तो डूब ही जाएगा।
लिखता हूं तुम्हे,
अब मैं फिर कभी।
सबसे पहले चाय, फिर,
बिस्किट खाया जायेगा।-