कलम के सहारे ही तो लफ्ज़ो को थामे खड़ा हूँ
तू गलत हो नहीं सकती मैं आज भी ज़िद पर अड़ा हूँ
यूँ तो कदम कभी डगमगाये नहीं तूफानों में मेरे
तेरे मुकर जाने के इक झौके से देख गिर पड़ा हूँ
अब आँखों में आँसू, हाथों में लिए मरहम ना हाल पूछ मेरा
तूझे मालूम है मैं जख्म दिखाऊंगा नहीं के खुद्दार बड़ा हूँ
हाँ आऊंगा तेरे दर पर इक बार इजाजत लेने
के ज़ी भर गया है अब दुनियां से चल पड़ा हूँ
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जरा ए-वक्त तू जल्दी गुजर और रात होने दे
मेरे ख़्वाबों की महफ़िल की हसीं शुरूआत होने दे
मोहब्बत आयेगी मिलने हवाएँ साज़ होने दे
मधुर संगीत की मद्धम कोई आवाज़ होने दे
के उनकी शान में देखो कमी ना कोई रह जाये
सितारों की मेरे दर पर खुली बरसात होने दे
परी सी बन के वो निकले तो फीका चाँद लगता है
चरागों की जवानी में गज़ब की आँच होने दे
के लब यूँ सुर्ख़ है उनके गुलों की है वो शहज़ादी
गुलाबों को अभी गहरा हया से लाल होने दे
ख़बर ये आईने को दो के जब वो सामने आये
चटक कर टूट ना जाये ना अपने होश खोने दे
उन्हें मैं देख लू जी भर के जी भरता नहीं फिर भी
ठहर जाओ यही पूरे मेरे कुछ ख़्वाब होने दो
सुबह को इत्तिला कर दो वो हमसे ना मुख़ातिब हो
मेरी हर रात पर फिर से चलो इक रात होने दो
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मोहब्बत कुछ कागज़ के टुकड़ों पर संभाल रखी है
लो मैंने फिर इक गज़ल निकाल रखी है
तुझे भूलना तो चाहता हूँ मगर क्या करूँ
तेरी यादों ने आ आ कर जाँ निकाल रखी है
ये इल्ज़ाम मुझको ना दो मैं आता हूँ जो तेरे पीछे
मेरी ये आदत तो मेरी जाँ तुमने बिगाड़ रखी है
चलो माना के अब नहीं कोई वास्ता मुझसे
फिर मिरी ये निशानी चुड़ियाँ क्यों डाल रखी है
तेरे ज़िस्म की तलब नही रुह से मोहब्बत है मुझे
गरूर- ए हुस्न की गलत- फह़मी जो तुने पाल रखी है
मुझे ना बताया करो की तेरे सज़दे में आशिक खड़े है कतारों में
तेरे इंतजार में अंदाज़ ने भी लड़कियां बहोत टाल रखी है-
लिख तो दूँ किस्से बेवफ़ाई के पर आँखें तुम्हारी कहीं भर ना जाये
अभी कुछ लोग यहाँ नये हैं मोहब्बत में हमारे तजुर्बों से कहीं डर ना जाये-
मोहब्बत में जाने किस को कैसा जूनून मिल जाये
उतार दे हर दर्द कागज़ पर तो थोड़ा सूकुन मिल जाये
और मैंने देखा है मोहब्बत खींच लाती है उस हद तक भी
जब ख़तों को नसीब ना हो स्याही तो थोड़ा खून मिल जाये-
यादों के सहारे रातों को बस काट लिया हम करते हैं
उसे खोने पाने की दुविधा में दिल ही दिल में डरते हैं
वो ना आये तो दिन लम्बे लगते आये तो छोटे पड़ते हैं
हर रोज़ लकीरों से उलझे हर रोज़ ख़ुदा से लड़ते हैं
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ज़िया तेरे हुस्न की जो ख़फ़ा हुई मुझसे
तारीक की मेहरबानियाँ बढ़ने लगी मुझपे
जुगनु मेरे आँगन से इनाद रखने लगे क्यों
क्या गुनाह किया जो दिल आदिल हारा तुझपे-
इतनी भी संजीदगी से ना पढ़ा करो मुझे
दर्द को अक्सर दर्द से मोहब्बत हो जाती है-
एक हम ही ख़फ़ा रहते हैं दिन रात तुझसे मिले दर्द से
बाकी तो सब यहाँ तेरे सौंपे हुए दर्द की तारीफ़ करते हैं-
तुम करो पैरवी अपने इश्क़ की मैंने शिद्दत से मोहब्बत की है वकालत नहीं
गुनाह मैं रखकर तुझे बरी करता हूँ जा फिर ना मिलेगी ऐसी अदालत कहीं
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