ना निर्भया पहली थी,
ना ही श्रद्धा आखिरी है.
कुरीतियों की भेंट हमेशा
महिलाओं को ही क्यों चढ़नी है?
कभी दहेज की अग्नि में,
कभी हैवानियत का शिकार
महिलाओं को ही सारे जुल्म क्यों सहनी है?
कभी कपड़ों को लेकर ,
कभी समय की पाबंदी
सारी बंदिशे महिलाओं पर ही क्यों करनी है?
न जाने कितनी ही जिंदगीयां
कुरीतियों की भेंट चढ़ी,
बढ़ते अपराधों को अब रोकना होगा.
बस....बहुत हो गया,
सोच को अपनी थोड़ा बदलना होगा.
कमजोर समझने की भूल न कर
बनकर ताकत साथ निभाना होगा.
मोमबत्तियां लेकर घूमने की बजाएं,
कुरीतियों को समय रहते
अग्नि में प्रज्वलित करना होगा.
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