Ananya Dangi   (अनन्या (दाँगी))
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Joined 8 September 2019


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14 NOV 2023 AT 14:00

ज्यादा कुछ बदला नहीं इस सिरहाने में...
देख फिर आ बैठी, मैं इस वीराने में...
जहाँ अनेक विचारों का द्वंद्व चलता है...
और स्वयं को खो देने का भय पलता है...
जहाँ अभिलाषित मन का खंडन होता है...
श्वास को निष्क्रिय करने वाली अनुशासित जीवन का आलिंगन होता है...
मिट्टी के पुतलों में ढूंँढता मेरा मन भाववाचक संज्ञाओं को...
बस मिलते मुझको अनगिनत विस्मयार्थक चिह्न...
देती नहीं कोई कविता असीम प्रेरणा मुझको...
कैसे लिखूँ मैं वो कविताएं जहाँ ढूँढ सकूं मैं खुदको...
अनन्या का मन विचलित हो बैठा है भविष्य के विचारों सेे...
ये वीराना भी परिचित हो बैठी है मेरे व्यवहारों से...

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25 MAY 2023 AT 20:35

बडे ही सरलता से कहे जाते थे कटु शब्द...
ये श्रोत सुनते सब थे और मौन रहते थे लब...
हृदय विषाद ग्रसित होते थे...
और नयनन से बहते थे नीर...
भला कब तक रहते ये लब अधीर...
अब ये लब भी करती है हृदय को घात करने वाली बातें...
अब स्वयं कि व्याकुलता कहा देती है औरों को चैन...
निष्कर्ष नहीं निकलता, गुज़र जाते है दिन और रैन...
अनन्या समझ ही नहीं पाती थी तुमको...
तुम्हारे बदले व्यवहारों को...
अब लगता है, तुमसे मिलूँ...
घंटों बात करूँ, कुछ अश्क बहाऊँ...
फिर तुम वही छोटी आशा और मैं अन्नू बन जाऊँ...
फिर हम एक आँगन में खेले...
चिंता रहित जीवन के मज़े ले...
तुम उसी तरह खामोश रहो और मैं पागल बनी रहूँ...
तुम मुझे शाँत करो और मैं नटखट पागल बनी रहूँ...

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27 MAR 2023 AT 12:33

ये मत पूछो कि ये कविताएं कैसे लिखी जाती है...

बस इतना समझलो कि जटिल भावों को

सरलता से पेश करना आदत है हमारी...

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15 MAR 2023 AT 13:16

हर किसी कि अपनी कहानी थी..
हर किसी केे अपने किस्से थे...
कुछ कहानियां दफन रह गयी...
तो कुछ राज़ गेहरे थे...
बरगद कि जेड जैसी लटकती ये यादें...
जितनी झुकती उतनी मज़बूत होती...
पानी का बुलबला ये मन...
क्षण भंगुर हो जाता...
टूटते कितने हृदय प्रेम में...
बरसते कितने नैन विरह में...
ललायित रहता ये मन किसी का होने को...
तो किसी को पाने को...
कदम आगे नहीं बढ़ते जीवन में...
ये अदृश्य पिंजरा घेरे रहता मन को...
अनन्या लिखे भी तो क्या लिखे...
दो लफ्ज़ कहाँ बयान करते है दर्द को...
बस कलम चलती रहती हैं...
रचती अनगिनत कहानियां...
सुकून कहा हृदय को...
जब मचले ये मन किसी का होने को...

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31 JAN 2023 AT 10:04

मृगतृष्णा सी पल पल बढ़ती...
छल-निश्छल से परे न रहती...
कभी तृप्त न होती, मेरे मन की तृष्णा...
ये कैसी मेरे मन की आशा, मेरी अभिलाषा...

कोई कहे मदिरा के नशे में मानव मन भटके...
मेरा मन तो कविता रस में अटके...
दिखे न मुझको, मेरे आगे कोई हताशा...
कितनी चंचल मेरे मन की आशा, मेरी अभिलाषा...

मन वो हिरनी, जो स्थिर नहीं...
हृदय वो पंछी, जो कैद नहीं...
भटके वन-वन, करे तमाशा...
कितनी आलौकिक मेरे मन की आशा, मेरी अभिलाषा...

मैं शब्दों में डूबू, मैं शब्दों में उभरूँ...
मैं शब्दों का ही परिरंभण करूँ...
देखूँ मैं, किस कविता ने मुझको कितना तराशा...
अद्भुत है मेरे मन की आशा, मेरी अभिलाषा...

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4 JAN 2023 AT 13:04

ये चिंता तू छोड़ साखी, कौन कितना अपना है...
तू समर का उद्घोष कर, देख किसका विचार कितना गहरा है...
तू स्वयं सार्थी, स्वयं अर्जुन है, कहाँ किसी का पहरा है...
तू पीछे पलट कर देख तो पथिक, कौन तेरे लिए ठहरा है...


सफलता की इस होड़ में सिर्फ विचारों का ही खेला है...
लक्ष्य से न भटक तू, चाहे तू कितना अकेला है...
सदा सुरभित रहेगा वो आँगन, जहाँ रिश्तों का बसेरा है...
त्याग तू चिंताओं को, व्याकुलता तो पिशाचों का डेरा है...


मौन रहना भी सीख तू, जब विपरीत समय का कोहरा है...
अश्रु न बहा तू, जब औरों में तू अकेला है...
रंगमंच कि इस दुनिया में अनन्या की बात मानो तुम...
जीवन की इस होड़ में कोई आगे है तो कोई वही ठहरा है...

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31 DEC 2022 AT 15:49

चुपके से, खामोशी से, दस्तक दे रही है 2023...
उम्मीदें तो तुम से भी बहुत थी 2022...
खैर, गिला नहीं करते हम बीती बातों पर...
तुमको अलविदा करने से पहले कुछ बंधन टूटे है...
तो कुछ अपनों को सितारों ने भी लूटे है...
तो चलो, कुछ अपनों के असली रंग भी देखे है...
हाय! अब देखो 2023 क्या गुल खिलाती है...
कितनी उम्मीदें बंदी है ज़िंदगी से...
देखते है किस मोड़ पर ले जाती है...
अनन्या तुम भी भाग लो इस होड़ में...
देखो कितने लोग अपने रंग दिखाते हैं...
साथ होने का बहाना कर आस्तीन में साँप छुपाते हैं...

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20 APR 2022 AT 12:17

लफ्ज़, कागज़ और अलफाज़
सब कम पड जायेंगे...
तुम्हारी यादों के किस्से इतने है कि,
तुम्हें भूलने में अरसो लग जायेंगे...

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10 FEB 2022 AT 12:16

"कभी कागज़ तो कभी कलम
कुछ रंग तो तुम भी दिखाती हो...
अब तुम ही बताओ स्याही
इनके अलावा और कितनो को रिझाती हो...."

सुन कर ये कटु शब्द
स्याही भी मौन पड जाये...
प्रफुल्लित रहे स्याही भी
कलम के आलिंगन में समाये...
आनंदित तभी तक स्याही जब तक
लेखक के विचार न बदल जाये...
फिर भी दुनिया यही बात दोहराये...

"कभी कागज़ तो कभी कलम
कुछ रंग तो तुम भी दिखाती हो...
अब तुम ही बताओ स्याही
इनके अलावा और कितनो को रिझाती हो...."— % &

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16 NOV 2021 AT 14:31

तुम कृष्ण से नटखट तो मैं
राधा सी चंचल प्रिये...

माना साथ नहीं हैं
पर हैं तो एक दूजे केे प्रिये...

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