Anand Prabhakar   (अनभिज्ञ)
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कुछ ख्याल शब्दों में पिरोने की कोशिश करता हूं। कैसा लिखता हूं ये आप तय करें!
Joined 7 June 2021


कुछ ख्याल शब्दों में पिरोने की कोशिश करता हूं। कैसा लिखता हूं ये आप तय करें!
Joined 7 June 2021
13 JUL 2021 AT 17:39

कार्ड

एक कार्ड रंग-बिरंगा,
कई नंबर, आड़ी-तिरछी रेखाएं,
आँखों का स्कैन,
छाप उंगलियों की।
घर का पता,
नाम माँ-बाप का,
सब जानकारियां इसी में।
सब जोड़ना जरूरी है इससे,
सरकार कहती है,
खाते, फोन और जाने क्या-क्या!
इसे आधार क्यों कहते हैं?

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3 JUL 2021 AT 17:24

सिगरेट

वह जो सिगरेट का कश लिया था तुमने,
उसका धुआँ अब भी चक्कर काटता है,
कमरे में, और रह-रहकर,
उस पुरानी कलमदान के पास,
चला जाता है,
जिसमें एक कलम, कुछ पेंसिल,
और एक कागज का टुकड़ा है।
वह टुकड़ा, तुम्हारी आखिरी खत का हिस्सा है,
जहाँ तुमने अपनी लबों से एक बोसा लिया था।
बेचारा इस गफलत में है,
कि तुम उसे जगह दोगी।

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2 JUL 2021 AT 16:51

‌ Moonstruck
Every full moon I watch it,
To lament on its fate.
I curse it for having the scars,
And as if my curse reaches it,
The moon starts hiding its face.
Shrinking with shame, it disappears on new moon.
In guilt, I beckon it to try me again,
The moon comes out in its full regalia
Yet, fails to bestow me.
And then, they find me cursing it yet again.
They say I am moonstruck.
I laugh in a maddening rage,
For they are mistaken,.
For they have not seen you.

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30 JUN 2021 AT 23:18

बंजर

कलम को बो दिया था मैंने,
कल इस उम्मीद पर,
कि कोई नज़्म उगे,
कुछ अशआर से फल लगें।
मगर ये ज़मीं भी
मुझसी ही निकली।
न कोई नज़्म हुआ,
औ' न आसार दिखे अशआर के,
नील और इश्क दोनो कि फितरत एक सी है।
एक जमीं को बंजर करता है,
दूजा दिल को

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28 JUN 2021 AT 22:58

सिगरेट

तुम्हारी उंगलियों में फंसे सिगरेट सा हूँ मैं,
तुम मुझे आगोश में लेती तो हो,
मगर दूर करने को।

बता दूं कि मेरा मैं तुझमें रह जाएगा,
कतरा-कतरा होगा इख्तियार मेरा,
तड़प उठोगी तुम...

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28 JUN 2021 AT 10:02

तुझे चांद कहने की ख़ता तो मैं कर बैठा,
अब उसे कौन समझाए,
शाम से ही इतरा रहा है जो आसमान में!

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26 JUN 2021 AT 21:41

शून्य

मैं किसी का भी द्योतक नहीं हूँ,
मगर मेरे बिना सब अपूर्ण है,
कितना विचित्र है न!
मैं शून्य हूँ।

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26 JUN 2021 AT 14:38

तेरे इश्क़ में आज भी जलता हूं मैं,
वक़्त की राख़ जमी है कुछ यूं,
धुआं दिखता नहीं है!

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26 JUN 2021 AT 11:07

हल्का
जान तुम जब मेरे सीने पर सर रखकर सोती हो,
बहुत हल्का महसूस होता है,
मेरी सख्सियत पर अकेलेपन का वजन
बढ़ गया था बहुत!
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अनभिज्ञ

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26 JUN 2021 AT 2:04

उन दिनों मैं गोल चश्मा पहना करता था,
तुमसे शुरू होकर तुम्हीं पर
ख़त्म हो जाती थी मेरी दुनिया।

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