Amrita Singh   (Amrita Singh)
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बस ज़िन्दगी की दास्तान थी सुनानी, हमारी ज़ुबानी।
Joined 6 January 2018


बस ज़िन्दगी की दास्तान थी सुनानी, हमारी ज़ुबानी।
Joined 6 January 2018
28 AUG 2021 AT 14:34

वक़्त लेकर, वक़्त से, तुम उस वक़्त को संजोने जो आ जाते,
वक़्त रहते, वक़्त के साथ, हम इस वक़्त में जीना सीख जाते।

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8 APR 2021 AT 0:12

खुद़ की ये ज़िद, ज़हन में ज़िद का ये सवाल,
कितनी बार ये कहानी ऐसे नये रुख़ लाएगी?

शुरू है जो किया, ख़त्म करने की ज़िद है जो पाली,
कितनी बार इन पन्नों में मिट कर, ज़िन्दादीलि फिरसे जगाएगी?

कैसे छुटे एक पन्ना भी, जो उस पन्ने में ही हो जवाब?
फ़िर पता हो ना हो, ये कहानी तब कहां ले जाएगी॥

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10 FEB 2021 AT 0:29

It keeps me alive,
It brings out the insanity
It boosts me up,
To swing into the gravity.

With the torrid thoughts keep coming,
To feel and live the fantasy,
To balance in between,
The desire and the reality.

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7 FEB 2021 AT 21:18

ज़िन्दगी यही, यही इसके उसूल हैं,
चाह के राह पर चलते
न चाह के भी जो आये, वो भी कुबूल है.

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24 DEC 2020 AT 21:39

छोड़ जो आशियाना, हम कुछ दूर चले आए थे,
छोड़ वो ठिकाना, जो किसी बहाने चले आए थे.
दिल का वो खालीपन तब भी गया न था,
मैं अब भी वहीं, दिल भी अभी भरा न था.

छोड़ जो कोना, दूसरे कोने चले आए अब,
छोड़ वो वास्ते, जो ख़ुद के होने चले आए अब.
दिल में उन रन्जिशों का आना तब भी थमा न था,
मन तब भी वहीं, ये मन अभी भरा न था.

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28 NOV 2020 AT 0:04

हिचकता था मन, वो दो बांते भी करने में उससे,
उन दों बातों का अंत, दों बातों में ही, फिर सिमटता कहां था.

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20 NOV 2020 AT 23:17

कुछ अलग सा खिंचाव था उन रास्तों में,
अपनों से कुछ दूर, अपना सा लेती थीं.
अजीब सा ठहराव था उन रास्तों में,
बेचैनी में भी थम जाने की, वो हवा सा देती थीं.

लेकर चल साथ, खु़द के खालीपन को, फिर उन रास्तों में
ज़ज्बातों के परे, मैं कुछ बदल सा जाती थी.
कुछ अलग सा एहसास था उन रास्तों में॥

हरबार हो रूबरू उन यादों सें, हां कुछ पल ही सही, निख़र सा जाती थी
कुछ अलग ही बात थी उन रास्तों की,
आंखे भी नम होती थी और दिल ही दिल मुस्कुरा भी जाती थी॥

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25 OCT 2020 AT 2:12

कट जाती है अब वो शाम भी अकेली,
जिनका ढलना कभी, तब मंज़ूर न था,

बदलती गई रुख़ वो खूबसूरत शाम,
बदलता रहा वंहा, सब कुछ अब उसके नाम.
वसूलों और वादों में फिर जकड़ते गए जो,
उस शाम में घुलना भी अब मजू़ंर न था.

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8 JUN 2020 AT 23:16

थक चुका था ज़हन भी मेरे खु़द से, खु़द के झूठ से,
उन वक़्तों का ज़िक्र ये चाहता ना था,
और भूलना इसे आता ना था.

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18 APR 2020 AT 21:13

पहलूओं का बदलना तो हाथ में न था,
बदलते गए हम जो, वो चाह में न था.
हालाकिं बदलाव तो है ज़िन्दगी में ज़रूरी,
क्या खु़द का बदलना भी है इतना ही ज़रूरी?

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