दूरियाँ पसंद आने लगी उसे भी शायद
तब ही वक़्त माँगना मैंने भी छोड़ दिया-
अक्सर जोड़ देते हैं लोग मेरा नाम उनके नाम के साथ
कमबख्त उनसे अभी तो हमारी नज़रें तक मिली नहीं हैं-
मोहब्बत मुझे ही नही
मोहब्बत मुझसे उसे भी थी
बातों में तकरार था तो कभी नाराज़गी तो कभी प्यार था
जाना तो था दूर उससे पर मेरे हाथों में उसका हाथ था
कहता था तेरे जाने की ख़ुशी होगी
लेकिन ना जाने आज उसकी आँखों में क्यूँ नमी सी थीं
दर्द मुझे था तो दर्द उसे भी था
पर कुछ जिम्मेदारियाँ हमारे हिस्सों में थीं
चाहते तो तनिक भी ना थे उसका साथ छोड़ना
पर कम्बख्त रश्मों रिवाजों की बेड़ियाँ
हमारे क़िस्मत में थी
मोहब्बत मुझे ही नहीं
मोहब्बत मुझसे उसे भी थी
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मणग्रंथ कहानियाँ बना कर
मेरे चरित्र पर वार करते हों
हो जाओगे खुद से रूबरू तब क्यूँकि
अपने ही चरित्र का गुणगान करते हों…….
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दर्द इतना मिला अपनों से की
हम अब रोना ही भूल गए
हँसते रहते हैं बेपरवाह
और लोगों को लगा हम ज़िंदगी जीना भूल गए-
लोगों को लगता हैं मुझे कोई तकलीफ़ नही होती
पर वो तो मेरे तनहाइयों को पता हैं
की मेरे तकिये की हर रात क्या हश्र हैं होती-
कहने को साथ मेरे
हज़ारों थे
पर सब मतलबी
यारों थे
कभी मेरा हाल ना पुछ सकें
जिनकी फ़िक्र में हमने कितने दिन -रात गुज़ारे थे
कुछ हो गए मसरूफ ख़ुद की ख़ुशी में
तो कुछ व्यस्त हो गए अपने व्यापारों में
एक हमसे ही ना भुलाए गए अपने मेरे
शायद मेरे दिल में ही बस सबके लिए सच्ची चाहत थी
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अब
जहाँ ज़िक्र सिर्फ़ मेरा हुआ करता था
मानो थाम लिया वो हाथ किसी और का
जिसने सात फेरें लेने का वादा किया था-
वो ख़्वाब
जो बचपन में सँजोए थे
मानो ज़िम्मेदारियों के साथ
वो दिल के कोने में दफ़न हो गए हों-