मुफ़्त के सपने, उधार की ज़िंदगी ,
नगद के ग़म, किराये की बन्दगी,
इंसां की ज़ीस्त का सार बस इतना सा,
भीख मांगती मोहब्बत, खर्च होती रिन्दगी।
ज़ीस्त- ज़िन्दगी, रिन्दगी- पाप
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कभी शायर , कभी कवि।
तुम में और इक गैर में फर्क कुछ दिखा नही,
तुम मेरे अपने नही और वो भी बेगाने नही।-
जब इन चिताओं का धुआं जब तुम्हे दिखाई देगा,
अपने ही घर में वो मनहूस सा मातम सुनाई देगा।
तुम खामोश रह लो, बेरहम के जुल्मोसितम पे,
ये आने वाला वक़्त तुम्हारी बुज़दिली की गवाही देगा
इन हुक्मरानों की महज प्यास है लहू की,
तुम बचा लो घर अपना, जमाना बाद में सफाई देगा।
कामिल हैं जो नाकाबिल हैं ये जानते हैं सब
जो अपने खुदा के नही , उन्हें ख़ाक खुदाई देगा।
अतालिक लिखता है महज दिल मे दर्द भर कर,
शायद जिसने दर्द दिया है, वो ही दवाई देगा।-
वक़्त मेरा बुरा था,
शिकवे तुम्हारे थे,
मैं जिन्हें चुरा के लाया
वो लम्हे तुम्हारे थे,
नींद जब टूटी तो
ये समझ आया
वो मैं था ही नही
बस सपने तुम्हारे थे।
अब सोने की बारी है
तुझे खोने की बारी है,
मैं तुम्हारा था नहीं
मेरी साँसे तुम्हारी हैं।-
पास आने पे दहशत भी हो सकती है,
मुझे तुमसे नफरत भी हो सकती है।
मैं गर भूल भी जाऊं तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम,
तेरी यादों से तो वहशत भी हो सकती है,
यूँ तो फिर लाख खौफ़ दबाये दिल में,
मुझे उस डर से शफ़क़त भी हो सकती है।
कोई अजनबी "अतालिक" अपना से लगे,
बात कोई, उसके बनिस्बत भी हो सकती है।
झूठ मैं लाख लिख लूं मेरी शायरी में,
सच यही है, मुझे फिर से मोहब्बत भी हो सकती है।-
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मैं शायर हूँ शायद, यूँ ही हारने वाला,
तुझे जिंदा रख , खुद को मारने वाला।-
काश उस दिन तेरे चेहरे पे नक़ाब दिखा होता,
इश्क़ न मुझको, बेहिसाब दिखा होता,
हिजाब में संभाल रख लिया होता तुमने,
कहाँ मुकद्दर से , हुस्न-ओ-शबाब दिखा होता।
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इश्क़ मेरा मुझमे ही खोता रहा,
मैं रात जागता , दिन में सोता रहा।
कहीं संभालता फिर कहीं बिखर जाता,
वक़्त को गुजरना था, गुजरता रहा।
तमाम उम्र सँभाले किस्से मोहब्बत के,
जिसे जिसका होना था, उसका होता रहा।
अंजाम इश्क़ का आग़ाज़ से मालूम था,
मुझको रोना था अतालिक, रोता रहा।
मुख़्तसर कर सकता था अपनी मोहब्बत को,
इश्क़ को तबाह होना था, बस होता रहा।
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मेरे मरने से जीने का सलीका सीखने वालों,
मेरी मौत का इल्जाम तुम पर ही आएगा।-