Amitesh Karn   (अमितेश कर्ण)
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Joined 10 May 2020


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9 JUL 2023 AT 11:06

बनाने चले थे जहां अपना
डूबा आये पूरी कस्ती अपनी
पाने चले थे मुकां अपना
गवां आये काहीं हस्ती अपनी
छांव दे फिर उसी आँचल की तू
जहा बस सके बस्ती अपनी

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15 AUG 2022 AT 9:29

अपनी समृद्ध संस्कृति को विश्व पटल पर लाना है
अपने वीर शहीदों के सपने, सच कर दिखलाना है
जन्म लिया है जिस भूमि में उसका कर्ज चुकाना है
छत ही नहीं आसमां में भी, फिर तिरंगा लहराना है

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19 JUN 2022 AT 22:56

जिसकी रक्षा का वचन था लेना, उसे जलाये बैठे हो
होनी थी जिस हाथ में पुस्तक, मसाल उठाये बैठे हो
आतंकी से था लड़ना तुम्हें, खुद अतंक फैलाये बैठे हो
बन जाओगे देश के नायक, क्या ये उम्मीद लगाये बैठे हो ?

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19 JUN 2022 AT 18:20

जैसे समुद्र मंथन के विष को खुद के कंठ में समा
शिव ने पूरे ब्रह्माण्ड को अमृत का उपहार दिया

वैसा ही एक पिता सारे विपत्तियो को खुद के हृदय में समा
अपने बच्चन को खुशी और सुकून उपहार देता है

हमारी जिंदगी में पिता ही शिव के समान है

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26 SEP 2021 AT 18:10

(पूरी रचना अनुशीर्षक में)

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30 AUG 2021 AT 9:20

"माधव! कष्ट विकट है बड़ा
मालूम सब तेरी ही माया है
साथ ना मेरे अब कोई कहीं
मेरे संग एक तेरा ही साया है"

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22 AUG 2021 AT 10:27

हैं दूर भले एक दूजे से
मन को दोनों ओर से बाँधा है
टूटे हैं यहाँ कितने रिश्ते
यह बंधन जोर से बाँधा है
निश्छल से भरा प्रेम अपना
राखी की डोर से बाँधा है

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28 JUN 2021 AT 13:31

ठीक वैसे ही
प्रेम में लिप्त प्रेमी को
अधिकार नहीं होता
तय करना प्रेम की पूर्णता
बस नियति करती है
इसे परिभाषित।

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20 JUN 2021 AT 9:25

तपती धूप में भी साथ छांव चलते देखा है
सदा चेहरे पर आशा की नाव चलते देखा है
रूक सी गयी है खुशियों की जिंदगी शहर में,
पिता के संग मैने प्यारा गाँव चलते देखा है

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13 JUN 2021 AT 1:14

जात उसका सुत था
वो सारथी का पुत था
बस यही उसके पाप थे
कि वो वस एक अछूत था?

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