खेल - खेल में दोस्ती होती थी,
खेल - खेल में होते थे झगड़े,
सुबह मां की पुकार से होती थी,
और रात पापा के दुलार से,
दादी सुनाती थी अनगिनत कहानियाँ,
और बीच में नींद की झपकियाँ मार जाती थी,
दादाजी की सिखायी बातें ही,
जीवन के पाठ पढ़ाती थी।
एक खिलौने मिलने का दुःख था तो,
दूसरे खिलौने मिलने की खुशी होती थी।
छोटी - छोटी चीजों में ही ज़िन्दगी बसी होती थी।
पैसा, कामयाबी, जलन, मोह - माया,
इन लब्ज़ों की कमी सी होती थी।
मासूमियत, प्यार, आदर, अपनापन,
इनमे लब्जों में ही ज़िन्दगी बसी सी होती थी।
सोचा नहीं जाता था, तब सिर्फ किया जाता था,
दिल-दिमाग एक साथ रखकर,
हर कठिनाई को जीत लिया जाता था।
सीधी सी ज़िन्दगी को हम यूँही मुश्किल बनाते गए,
बड़े होकर हम खुद को उलझाते गए,
पलट कर वहां जाना भी चाहे तो भी ना पहुँच पाए,
है ये ज़िन्दगी रेत की तरह,
फिसल जाए तो पकड़ ना आये।
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