यादों के गलियारों में..
दिख पड़ती है एक रोशनी फिर घनघोर अंधियारों में,
की हवा कहां कैद होती है, इन दरों में–दीवारों में !
कुछ हैं अधूरे ख्वाब जो अधूरे ही अच्छे लगते हैं,
सारी दुनिया तो नही छपती, रोज यहां अखबारों में !
बड़ी मुश्किलों से सम्हाल रखा है किरदार को मैने,
बहुत सस्ते अब बिकते है, अब ईमान इन बाजारों में !
बैठकर खुदसे मुलाकात की फुरसत किसे है यहां,
जाने कहां सब भाग रहे है, दुनिया की रफ्तारों में !
जख्म जुबां भी बड़े गहरे दे जाती है आजकल जनाब,
नही मिलती है ऐसी धार, यहां तो किसी तलवारों में !
जो जिंदा हैं वही तैरकर एक मंजिल को तलाशते हैं,
फेंक देता है समंदर भी, इन लाशों को किनारों में !
मेरे नाम में भी अब एक अधूरापन सा लगता है मुझे
एक हिस्सा शायद छूट गया, है यादों के गलियारों में!!
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