मुश्किल है अल्फाज़, मगर अब हो जो हो,
यूं बिन मौसम बरसात, मगर अब हो जो हो।
हमने उसको सब कुछ कहकर देख लिया,
अब चाहे ना हो बात, मगर अब हो जो हो।
हां मुश्किल है यूं,तन्हा रातों को जगना,
फिर भी बैठे हैं आप, मगर अब हो जो हो।
यूं घर से बाहर,मूर्छित भ्राता,बिन पत्नी,
हां मुश्किल में थे राम,मगर अब हो जो हो।
जो भी अपना ज्ञान,मुफ्त में बाटे तो,
भाड़ में जाओ आप,अतः अब हो जो हो।-
उस रब्त को मैं खाक करके आ चुका हूं जो,
जीवन के किसी मोड़ पे बेहद करीब था।-
तेरे हर नाम,के इल्ज़ाम,को तस्लीम,कर लिया,
तो फिर रदपुट,में धंसे ख़ार,से यूं राब्ता कैसा?-
यूं हर रात,गुज़ारी,गई है बस,फितूर में,
मुश्किल ही सही,उनको यूं,आना करीब था।
ना बैठो,शमा-ओं की सम्त,जाके जुगनुओं,
पर फिर भी,दीवानों को यूं,मरना नसीब था।-
चलो यूं सपनों,को आग दे दें,
क्यों अब सुनें हम,यूं हर किसी की,
मुझे भी रंजिश,है ज़िंदगी से
तुम्हें तमन्ना ,है ख़ुद खुशी की।
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हां उसको रोक लो,अभी वो,चल ही जायेगी,
बारूद जिंदगी,कभी तो,जल ही जायेगी।
हर रात,तुम्हारे ही,तसव्वुर में, जग रही,
मुश्किल ही सही,ये निशा,भी कट ही जायेगी।
मुझे हर्फ,यूं दर हर्फ,ना मजबूर कीजिए,
वरना ये शमा,जलती हुई,बुझ ही जायेगी।
तस्लीम हो चुके,हो जो तुम तो,मुझे कह दो,
ख्वाहिश ही सही,दो दिनों,में मर ही जायेगी।
वो बात,डायरी की किसी,एक हर्फ में,
आधी सी लिखी, अध पढ़ी सी,रह ही जायेगी।
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मुझे अब हर्फ़,यूं दर हर्फ़,ना मजबूर कीजिए,
वर्ना ये शमा,जलती हुई,बुझ ही जायेगी।-
मैं अक्सर,ज़माने,की ज़द को,भुलाकर,
खुद-ही से,नदारद, हँसी बेचता हूं।-
तेरी वो,मस्करी करती,हुई आखें,चमक आई,
नज़र मेरी,पुरानी डायरी,की सम्त,जा पहुंची।-
यूं लगता हैं रब्त पुराने दफ़न किए,
जब से तुमने,नया शहर तस्लीम किया।-