हर ख़ुशी थी लोंगों के दामन में
पर एक हंसी के लिये वक़्त नहीं था,
दिन रात दौड़ती दुनिया में
ज़िन्दगी के लिये ही वक़्त था।
अपनों की भी कद्र नहीं थी
बातों का भी वक्त नहीं था,
रिश्तों को तो हम मार चुके थे
और दफ़नाने का भी वक़्त नहीं था,
सारे नाम मोबाइल में थे
पर दोस्ती के लिये वक़्त नहीं था,
गैरों की क्या बात करें जी
जब अपनों के लिये ही वक़्त नहीं था।
आखों में थी नींद भरी
पर सोने का वक़्त नहीं था,
दिल जब भी था ग़मो में डूबा
पर रोने का भी वक़्त नहीं था।
पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े
की थकने का भी वक़्त नहीं था,
पराये एहसानों की क्या कद्र करते
जब सपनों के लिये ही वक़्त नहीं था।
तू ही बता ऐ ज़िन्दगी हमें
हमने अब तक क्या पाया था,
आज घर में रहने को मजबूर है
कभी घर में रुकने का भी वक्त नहीं था।
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