स्वर निर्झर झरता अविराम ।
लता दीदी ! अंतिम प्रणाम ।।
माँ सरस्वती स्वर में तेरे ,
सुर में मधुवत अद्भुत मिठास।
वह सौम्य सरल ममता मूरति,
वह सत्य स्नेह चिर मंद हास।।
वह सम्मोहन वह आकर्षण,
साधना सतत सुंदर गायन ।
वह राष्ट्रप्रेम का मंत्र सुना ,
कर गईं सीखा शुभ आराधन।।
अनुरंजित कर पीढियां कई ,
तोड़े भाषाई मोह - बंध ।
संगीत नहीं है व्याप्त कहाँ,
सरगम से शोभित सभी छंद।।
आकाश, भूमि, भूधर, निर्झर,
सुर सप्त ,स्वर, सरिता ,समीर।
चर -अचर सभी हैं खड़े हुए ,
भरकर आँखों में आज नीर ।।
गूँजेगी वाणी जन- जन के ,
हृदयों में जब तक नीलगगन।
गीतों को तेरे सुन - गाकर ,
झूमेंगे फिर सब मस्त मगन ।।
नश्वर शरीर प्रभु में मिलता,
आवाज न लेती है विराम ।
शत शत प्रणाम।
अंतिम प्रणाम ।।
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बलिदानी वीरों ने अपने ,
शोणित से यह शौर्य लिखा है।
अपराजेय,अखण्ड विश्व में ,
भारत को शिरमौर लिखा है।।
साहस धैर्य पराक्रम से ,
अरिदल के पाँव उखाड़े हैं।
कारगिल में विजय पर्व का ,
एक अनोखा दौर लिखा है।।-
"अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस" पर अर्पित मातृभाषा हिंदी के प्रति शब्द प्रसून....
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती।
भगवान ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती ।।
----राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
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कोटि कर, कर रहे तेरी वंदना
जन्मभूमि भू तुम्हारी अर्चना
स्वेद,शोणित से सदा सींचित रही
ऋषि,तपसी,वीरों की भोग्या मही
यश:दा, बलदा सदा शुभकीर्तिदा
कृष्ण ने भी आ यहाँ गीता कही
अटल हिमगिरि से श्री रामेश्वरम्
तक, प्रसारित है तुम्हारी साधना
जन्म भूमि भू तुम्हारी अर्चना
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जन्मभूमि भारत
✍️स्मृतिशेष पं. कुबेर नाथ मिश्र 'विचित्र'
जनमभूमि भारत के चरन चारु चूमि चूमि,
घर घर में घूमि घूमि विपति के विदार देबि ।
फारि देबि फूटे अस गाँवन से फुट-बैर , बैरिन के फिंचि फिंचि गमछा अस गारि देबि।।
दउर -दउर धरती पर डेग जे बढ़ाई ,आ आँखि जे देखाई झट पाँखि हम उखार देबि।
सारि सारि सनई अस पटक पटक पानी पर,
घाम में कुआरे की तानि के पसार देबि।।
पूरुब से पश्चिम ले ,उत्तर से दक्खिन ले,
दिशा -दिशा ,कोन- कोन सेना तैनात बा ।
बुकि देबि बौना के ,मरियल मृगछौना के,
काबू बा कौना के , घर में घुसि जात बा।।
आपन हम छोड़बि ना , छिनब ना केहू के
बांटे जे आवे उ खुद ही बँटि जात बा ।
बेर बेर बरजि के 'विचित्र' कहें घेरि घेरि,
कि शेर से सियार भला काहें अझुरात बा।।
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धरती हो श्यामला,
वायु स्वच्छ हो।
नदियां, झील,झरने
कल-कल
बहते रहें ।
उन्नत पहाड़,वन
झुरमुट हरे- भरे,
प्यारे से पक्षी,
कलरव
करते रहें।
वन्य जीव अभय रहें,
प्रकृति की
गोद में ।
बादल भी बरसें,
सब रहें
आमोद में।
स्वच्छता भी रक्खें,
हम अपने चतुर्दिक
पौधे लगाएं
और
पालन करते रहें ।
बढ़ता प्रदूषण
जिससे ,
उन तत्वों का
प्रयोग न करें
या
कम करते रहें ।
'परि' है हमारे
'आवरण' जो
प्रकृति का,
इसको
बचाएं और स्वयं
बचते रहें।
प्रकृति में हमारी,
निष्ठा हो
गहरी ।
मिलजुल कर बनें
हम सब ,
'पर्यावरण
प्रहरी' ।।
✍️ अमित कुमार मिश्र
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मनुष्यता v/s पशुता
पशुता भी ओछी लगती है,
देख मनुजता आज तुम्हारी ।
क्या समझोगे तुम , बेचारे
भूखे प्यासों की लाचारी ।।
दो घुटनों के बीच सिसक कर,
करुणा , दया आज रोती है।
संवेदन को हुई वेदना ,
लज्जा भी लज्जित होती है।।
पशु तो है लेकिन प्राणी है,
पढ़े लिखों को कौन बताये।
कौन बचाये ,कौन सिखाये,
साक्षर जब राक्षस बन जाए।।
थी गर्भिणी , और भूखी थी,
बस यह उसका दोष हुआ था।
तेरे दिए फलों को पाकर,
उसको कुछ संतोष हुआ था ।।
हाय! अभागन समझ न पाई,
मानव का तो मन मैला है ।
दानवता का विष तो इसके,
रग - रग में पूरा फैला है ।।
चली पेट की आग बुझाने,
खाकर बारूदों का गोला ।
उधर पल रहा शिशु गर्भ में,
क्या वह भी कुछ समझा,बोला।।
घायल होकर भी ना उसने,
पशुओं सा आचार किया है।
प्राण त्याग तो दिया , परन्तु
तुमने कभी विचार किया है ।।
लगा मनुजता के माथे पर,
यह कलंक का काला टीका।
यह हत्या है , संस्कृतियों की,
हुआ सभ्यता का रंग फीका ।।
हमें समझ ही नही आ रहा,
यदि हम ऐसे कर्म करें।
तो पढ़े -लिखे होने पर अपने,
गर्व करें कि शर्म करें ।।
✍️अमित कुमार मिश्र-
यस्योल्लसति उपवने पवने वने च ,
यस्य विभाति आयाति च याति श्वासा:।
विश्वस्य आदि कर्ता , धाता विधाता,
तं ईश्वरं , सकल भूतपतिं नमाम:।।
सर्वे जना: विमोहति , यस्य लीलां,
कुर्वन्ति कर्म विविधा शुभवा$शुभस्य ।
यस्यस्मरण _ मात्र _ददाति _ पुण्यं,
तं आदि पुण्यपुरुषं , हृदये स्मराम:।।-
पहचानो ना , तुमसे मेरी,
ये पहली मुलाकात नहीं है।
समझ सको ना प्रेम हमारा,
ऐसी भी कुछ बात नहीं है।।
अपनों ने तो छोड़ा ही है,
तेरा भी तो साथ नहीं है ।
मेरी बदहाली में साकी,
तेरा ही तो हाथ नहीं है।।
इश्के-गुलिस्तां सूख गया है,
हुश्न की वो बरसात नहीं है ।
चाँद निकलता पर तेरे बिन,
लगती चाँदनी रात नहीं है ।।
जख्मी दिल,आँखों में आँसू,
अच्छे अब हालात नहीं हैं ।
तुझसे करके यही लगा कि,
इश्क सजा , सौगात नहीं है।।-
विजय के गान की गाथा कि भगवा शान की गाथा।
कि क्षत्रिय शौर्य विक्रम के परम सम्मान की गाथा।।
तूँ गौरव है भारत भू का , कि ये मेवाड़ साक्षी है,
लिख सकता भला कोई तेरे स्वाभिमान की गाथा।।
रक्त यह राजपूताना , पराक्रम की कहानी है ।
रहे आधीन मुगलों के तो धिक् धिक् वो जवानी है।।
कि खायी घास की रोटी,पिया चंबल का था पानी,
यही चित्तौड़गढ़ राणा के , वैभव की निशानी है।।
दुश्मन के लिए था काल , तांडव था प्रलय था वो ।
कहीं चेतक पे चढ़ बैठा तो शंकर सा अजय था वो।।
कि देखो हल्दीघाटी की ये माटी रक्त - रंजित है,
मुकुट मेवाड़ का निर्भय , सनातन की विजय था वो।।
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