अमित कुमार 'यथार्थ'   (अमित 'यथार्थ')
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Joined 22 December 2017


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Joined 22 December 2017

ओ मसीहा!
तुम रोक सकते थे न मुझे
बार-बार गिरने से..
बदली जा सकती थी न
मेरी कहानी..
एक हाथ में किताब दे दी
और दूसरे हाथ में बे-सबर दिल
मुझे दोनों से मुहब्बत थी
मुझे सब कुछ सँवारने थे..
ख़ैर,
मुझे अभी-अभी
सब समझ आया है..
मुझे अब जा के
रास्ता मिल गया है!
मगर जद्दोजहद में
बहुत वक़्त गुजर गया
ओ मसीहा!

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जीवन के यथार्थ पे
मैंने इक कहानी लिखी
जिसमें सारे किरदार खुश थे
बस कहानी बेचैन थी, ग़मज़दा थी।।

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बिन पानी के दरिया हैं हम मिट्टी में खो जाएँगे,
तुम बादल,जो ना बरसोगे,बंजर-से हो जाएँगे,
हम पाषाण हुए जीते थे जान तुम्हीं ने फूँका है,
तुमसे छूटेंगे और फिर से पत्थर के हो जाएंगे।

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मेरे हिस्से में हैं जितने
सुख वो सारे तेरे हैं।
तेरे पास गम हैं जितने
वो सब मेरे हिस्से हैं।
तुम सच में हो,या हो दर्पण
बिल्कुल मुझ-से लगते हो,
जैसे बंजर-सी आँखों में
सपने फिर से उगते हो।
दिल का इतना गहरा रिश्ता
कैसे तोड़ा जाता है,
पीछे रूक हम देखते कैसे
जीवन छोड़ा जाता है।

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तुम सिरहाने बैठे रहते
माथे को सहला देते
याद तुम्हारी आती मुझको
तुम मुझको बुला लेते
मेरे जीवन का हर रस्ता
तुझसे हो गुजरता है
इतना पागल होता है कौन
कौन इतना मरता है
साथ किसी के चलते हैं
और रस्ता मोड़ा जाता है,
पीछे रूक हम देखते कैसे
जीवन छोड़ा जाता है।

-



प्रेम में तुमसे थोड़े से भी
जो हम छूट जाते हैं,
मत पूछो होता क्या भीतर
पूरे टूट जाते हैं..
इतना विवश बना बैठे हैं
खुद को तेरी चाहत में
जीवन के हर पहलू में हो
तुम हो मेरी आदत में
हाथ हमारा चलते चलते
यूँ जब छोड़ा जाता है;
पीछे रूक हम देखते कैसे
जीवन छोड़ा जाता है।।

-



अंदाज़ा है मुझे
कि क्या, कितना है।

इक मुद्दत से,बहाव में
दरिया कितना है।

मुट्ठी भर जुगनू लिए
कूच कर गए हैं हम

रोशनी को क्या गरज़
अंधेरा कितना है।

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लड़ो कि न मलाल हो
कि बच गया,कुछ रह गया...
लड़ो कि चुप रहे कहीं,
कोई स्वप्न फिर से ढह गया...

लड़ो कि ख़्वाब जगते हों,
हर रात अपनी आँख में...
लड़ो कि रूह सुलगती हो
फिर जिस्म के ही राख में...

लड़ो कि तुम रुको नहीं,
जो मन में अपनी ठान लो...
लड़ो कि तुम समझ सको
लड़ो कि खुद को जान लो...

लड़ो कि शाश्वत है वो,
जो अंत से डरा नहीं...
लड़ो कि जिंदगी यही,
जो लड़ गया मरा नहीं...

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ये इश्क़ है या रोशन है खुदा,
कुछ भी समझ आता नहीं,

यह रात कितनी भी गहरी हो
तुम्हारा चेहरा धुँधलाता नहीं।

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इक दुनिया है समंदर-सी
जिसमें दम घुटता है मेरा

इक तू दरिया है जिसमें
डूब जाऊँ तो साँस आती है।

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