तुमसे दूर और इतना दूर हो चला हूं
शायद अब याद भी तुम तक नहीं पहुंच पाती...
अब तो मंज़र ये है कि
नहीं पहुंच पातीं हैं तुम तक
ये निगाहें और इनकी सिसकियां...
कभी इन आंखों में खोना ,
पलकों का हर एक कोना...
तुमसे शुरू होता था और तुम पर ही खत्म...
जज़्ब कर लेती थी तुम्हारी आगोश मुझे मेरे अन्त तक
...
जहां शून्य से शिखर तक मैं ही रहता था...
पर आज मैं न ही शून्य हूं और...
शिखर पर शायद कोई और ही है...
फिर भी ये दूरी ऐसी है जैसे क्षितिज...
जो प्रतीत हो रहा है कि यहीं तो हैं हम...
पर कहीं नहीं हैं अब शायद...
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लगा लिया है एक 'चेहरे ' को मुस्कान भर के...
Student of Econo... read more
माना हर लम्हा साथ न रहेगा न ही एक जगह ठहर पाएगा...
लेकिन उस लम्हे को एक खूबसूरत वज़ह देना और याद में क़ैद करना, अच्छा तो लगता है...
जब भी देखते हैं मुड़कर अपनी जिंदगी को...
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सितारे जलते हैं याद में हर रात..
बन बेजुबां महफ़िल जमाए बैठते हैं...
प्रीत का कहना-सुनना,
हर बात में लड़ना-झगड़ना,
लड़ के खुद ही रुठना-मनाना
कभी कुछ देर के लिए ही सही टूटना-बिखरना,
.... बिखर कर फिर से सिमट जाना.....
और उन यादों में हुई मुलाक़ातो के कारण
...ये....सभी जलकर टिमटिमाते हैं ...ऐसे .....
..जैसे आंखों से गिरकर आंसू पलकों पे आ लटके हों....
लेकिन...!!
शायद नहीं मालूम उनको , उनका चांद किसी और के आगोश में है..
और ओस की टपकन बन उनके ही आंसूओं का हर बूंद
इस चांद के जिस्म को नवयौवन दे रहा है.....
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हर याद जिसमें तुम हो ...
एक मुलाकात सी लगती है..
अब तो हवा भी गुज़रती है जब नजदीक से...
कानों में तुम्हारी बात सी लगती है...
हम छुए नहीं हैं अब तक लबों से जिसे
उनका बाहों में गिरना और गिर कर पिघलना बाक़ी है
यूं जो सिमट गए हैं जिस्म पर चादर की तरह
जूड़ गए हैं जैसे 'हिन्दोसता' थे
इनका भी 'पाकिस्तां' बन बिखरना बाक़ी है...
क्या कहते हो ...?
बेमतलबी थीं वो सारी बातें , वादें और मुलाक़ातें...?
या ख़ुदा ..
अब तो हर घड़ी..क़यामत की रात सी लगती है....
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तुम और तुम्हारी आंखों की ख़ामोशी..
एक अजीब सी पहेली है..
ऐसा लगता है कुछ कहना चाह रहीं हैं आंखें.. तुम्हारी
और तुम अचानक एक नक़ाब पहन कर
बंद कर लेती हो ... रास्ते जिन पर चल कर सब कुछ जान पाता....और रह गुज़र बन जाता...
या कि दर्द हो या ग़म या होती बेखुदी इन सबमें साथ तो होता.... जहां भी होती तुम हाथों में तुम्हारे एक हाथ तो होता...
ऐसा लगता है कि तुमने समेट लिया है खुद को
अब तुम और तुम्हारी ख़ामोशी हैं बस तुम तक..-
बादल में तुम और बारिश की बूंदों में तुम...
नदी के दोनों किनारों पे तुम,
इसके बलखाती लचक और हर शरारत में तुम..
उठती हुई लहरों में तुम और .. उसके सागर में तुम...
रात के ठंडी -ठिठुरती चादर की हर सिलवट में तुम
भोर के ख्वाब में तुम .. सुबह की भीनी महक में तुम
सूरज की लालिमा और उसके दस्तक से उमंगित चिड़ियों की चहक में तुम....
आंखों की नमी में तुम...
उससे बन गिरती है जो शबनम उसमें भी तुम....
मेरे हर आश में तुम और लिबास में तुम
तुम हो और तुम तक मेरी बातें हैं
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पता वहीं पुराना है
....
क्षितिज पर ही
जहां ये ज़मीं और आसमां मिलतें हैं
शायद......-
बस तुम ही तो थे , तुम ही हो ,
और शायद रहोगे तुम ही यहां...
अभी जिंदा हूं और जिस्म में
सांस बाक़ी है शायद..
हर फलक पे मेरे ...,
चाहतें मेरी .....निशान तुम्हारा,
और अरमान तुम्हारा ,
हर कतरे पे , 'हम'....
लेकिन तुम्हारे लिए
'अब' केवल 'तुम' शायद.., ...
और नाम तुम्हारा....
हर सांस पे ,.... जीवन बनकर तुम ...,
और अज़ान में नाम तुम्हारा...
बस तुम ही.......और सारा तुम्हारा......
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पत्तियों की सरसराहट सन्नाटा भर रात की आवाज़ बन जाती है...
टपकती हुई आंखों के सामने , रात का हवस है मायने..
थका-मांदा मजदूर सो जाता है फुटपाथ पर..
रात हजारों सपनों को रौंद जाती है फुटपाथ पर..
अधनंगी सुनसान रातें दिखातीं हैं , लाचारी - बेबसी- बेचारगी...... मासूमियत को रौंदती हैवानियत
यहां तक कि दरिंदगी और खून से लथपथ सड़कें...
......, हां ....सड़कें जो रहतीं हैं गुलज़ार दिन भर
रात में जानलेवा बन जातीं हैं....
हर रात के साथ चुपके से 'खून' - चूसता है एक जानवर
और उसके साथ सिसकियां- चीखें- चिल्लाहट
ख़ामोश रात सब सुनकर समझकर जज़्ब कर जाती है
हर सुबह... मदमस्त साम को पार कर दिन भर..
घूमती -भटकती, खटकती , छिछली सी बन आती है फिर से....
..........रात के दहलीज पर...
जिसमें पत्तियों की सरसराहट सन्नाटा भर रात की आवाज़ बन जाती है.....।
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ख़ामोशी अब... जुबान हो गई है.
कुछ लिखा नहीं जाता अब
जैसे कलम भी बेजुबान हो गई है
रात की गहराईयों ने
शुरू कर दीं हैं कई बातें
अब इनकी सुबह ना हो
तेरी अंगड़ाइयों ने
शुरू कर दीं हैं कई रातें..
अब इनकी सुबह ना हो..
तुम्हारी बातों और अंगड़ाइयों ने
छू लिया है ऐसे
हर एक लफ्ज़ और लमहा
अब अज़ान हो गई है...
ख़ामोशी ......अब
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