पा लेना ही है
खो जाने के बाद भी
आस लगाना
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गर कलम न होती तो कब का मर गया होता।"
ये कलम का ... read more
मानव: देव और दानव का संगम
मानव, तेरी क्या परिभाषा?
तू देव भी है, तू दानव भी, कैसी तेरी आशा।
एक ओर है करुणा, प्रेम की बहे धारा है,
दूजी ओर लोभ, क्रोध का विष पसारा है।
कभी हैं पूजे जाते और कभी ये निंदित होते,
तेरे ही कर्म तुझे स्वर्ग या नर्क हैं देते।
दया का सागर, तो कभी क्रूरता की हद,
तू ही सृष्टा, तू विध्वंसक, क्या है तेरा मक़सद?
अंदर तेरे राम भी है, और रावण भी बैठा है,
चुनना तुझे है, किस मार्ग पर तू लेटा है।
प्रकाश भी तुझमें, अंधियारा भी समाया है,
देवता है या दानव, तूने खुद को क्या बनाया है?
यह द्वंद्व शाश्वत है, हर हृदय में है जारी,
तेरे ही हाथों में है तेरी ये दुनिया सारी।
तो पहचान खुद को, अपनी शक्ति को जान,
देवता बन उभर, या दानव का दामन थाम।-
आसान करते हैं सारी उलझनों को,
सीधे चलते रास्तों को एक नया मोड़ देते हैं।
जो पुराने हैं उन्हें भुला देते हैं,
हम कहानियों में अपनी कुछ और किरदार जोड़ देते हैं।
बहुत वादे कर गए थे जब इश्क़ में थे हम - तुम,
चलो उन्हें सिर्फ़ बातें मान कर तोड़ देते हैं।
तुम्हें थामनी है उंगलियां किसी और की अब,
तो ऐसा करते अब साथ छोड़ देते हैं।-
वक्त के साथ लहजे और एहतराम बदल जाते हैं,
मिलने के तरीके और इंतजाम बदल जाते हैं।
बदलना तो फितरत में शामिल है हर शय में दुनिया की,
कुछ पीठ पीछे बदलते हैं कुछ शरेआम बदल जाते हैं।
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एक रोज़ इन तामाम उलझनों से फारिग हो जाऊंगा,
गुज़र जाऊंगा वक्त की तरह एक तारीख हो जाऊंगा।
अभी झुलस रहा हूं तपिश में भाप बनकर,
कतरा कतरा जमा हूंगा फिर बारिश हो जाऊंगा।
कोई और नहीं होगा शामिल मेरी मिल्कियत में,
मैं मेरे अंजामों का इकलौता वारिस हो जाऊंगा।
फ़िर न झुकेगा सर किसी भी दर के आगे,
अपने ही घर का मुहाजिर हो जाऊंगा।
कभी कोई मिसरा,कोई शेर लिखोगे मुझपर,
मैं इस कदर उलझा हूं कि बहर से खारिज़ हो जाऊंगा।-
बचपन में देखता था पिताजी को फुल पैंट पहने,
कमीज़ की बांह मोड़े और आंखों में चश्में के क्या कहने।
तो सोचता था काश मैं जल्दी बड़ा हो जाऊं,
मैं भी जिम्मेदार बनूं और सब पर रौब जमा पाऊं।
लूं हर फैसला खुद की मर्ज़ी से जब चाहूं,
कोई बंदिश न हो हर वक़्त खुद को आज़ाद पाऊं ।
अक्सर डाल कर पैर उनके जूते में,
ख़ुद में उनका अक्स देखता था।
उनकी कमीज़ पहन ख़ुद को,
एक अलग शख़्स देखता था ।
(शेष आगे)-------->>>— % &फिर समय बदला और बचपन गुज़र गया,
पैंट आधी से पूरी हो गई।
कद कुछ इंच और बढ़ गया,
कंधों पर जिम्मेदारी की बढ़ी सुकून से दूरी हो गई।
बचपन का ख़्वाब अब धूमिल सा हो गया है,
मन का उत्साह बोझिल सा हो गया है।
अब रात को नींद कम तनाव बढ़ रहा है,
आंखों सपनों से अलगाव का ढंग चढ़ रहा है।
याद करके बचपन आँखें नाम हो जाती हैं,
खुद पहुंचें उस दौर में समझ आया,
क्यों पिताजी को हंसी कम आती है।
जो लगता था रंगीन अब स्याह नजर आता है ,
बचपन का ख़्वाब अब भयावाह नजर आता है।
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कुछ ग़म मिटाने हैं,
कुछ खुशियों का हिसाब करना है।
हर निगाह हसरत से देखें हमें,
खुद को वो शबाब करना है।
लगभग तो गुज़र गई बेजा जिम्मेवारियों की दौड़ में,
बची कुची को अब और नहीं ख़राब करना है।
कांटों को भी यार बना सकूं,
खुद को वो गुलाब करना है।
एक संगम बनाकर गंगा और जमुना का,
लगा डुबकी खुद को पाक करना है।
मिटा कर सारी कालिख मुस्तकबिल की,
हर एक पन्ना साफ़ करना है।
चढ़ा कर नई ज़िल्द सपनों की,
मुझे ज़िंदगी को फ़िर से कोरी किताब करना है।-
वो लौट कर आया दफ्तर से,
आकर उतार कर रखा,
बैग, घड़ी,कपड़े
और फिर उतारा वो मुखौटा
जिसे वो पूरे दिन लगा कर बैठा था
और दिखा रहा था समाज को कि
वो मजबूत है निडर है।
वो लौटी अपने कमरे में,
दिन भर के सारे काम निपटा कर
और हटाया वो मुखौटा।
जिसमें वो दिखा रही थी,
झूठी मुस्कान और संतुष्टि
ताकि ये लगे कि वो प्रसन्न है।
फ़िर दोनों पहुंचे अपने बिस्तर पर
बिना मुखौटों के,
एक दूसरे की वास्तविकता को देखा।
फिर एक दूसरे को आलिंगन कर सो गए।
उस ऊर्जा को एकत्र करने में खो गए।
जिससे कि फिर लगा सके उस मुखौटे को
जिसने छुपा रखा है उनकी वास्तविकता को।-
कुछ ख़्वाब,कुछ हक़ीक़त
कुछ अहसास,कुछ अकीदत।
कुछ जज्बे कुछ हौसलों की रवानी,
बस इतनी ही तो है जिंदगी की कहानी।-
कि वाकया कुछ यूं हो जाना,
तेरा मेरे साथ होना फिर गुम हो जाना।
मुझे देर से अहसास हुआ कि हम साथ नहीं हैं,
तेरी बातों में मेरा जिक्र कम हो जाना।
चलो कोई बात नहीं कि अब दूर हो गए हैं,
मलाल है ताल्लुक़ ख़त्म हो जाना।
ये बात भी ज़रा देर से समझ आई,
तेरे लहज़े में मेरे किरदार का आप से तुम हो जाना।
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