इस युक्तिसंगत समाज में, कभी कभी विचार आता है की कामयाबी क्या है ?
क्या किसी का इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे अत्यादि जगहों पर पर्याप्त मात्र में अनुयायियों को इकठ्ठा करना ।
या किसी प्रकार का रुतबा दर्ज कराना है ।
पैसों की ढेरी लगाना और उसे लगाने के लिए छल, कपट, चलाकी, ठगी को घरों में लाना ।
अगर ऐसा था तो बचपन में मोरल साइंस की कक्षा में नैतिकता का पाठ अध्यापक क्यों पढ़ाते थे ।
फिर मन में विचार आता है की कामयाबी क्या है ?
क्या वो नैतिकता , अच्छा इंसान सब जूठ था ।
क्या वो काल्पनिक दुनिया है जिसमे में अभी भी जी रहा हूं ।
कक्षा दसवीं में बताया जाता था की , ये कर लो बस फिर जिंदगी आसान है । फिर आज ये विचार, शिक्षा अत्यदि क्यों धुंधली पड़ गई।
क्यों एक मात्र मापने का पैमाना पैसा , खूबसूरती बन गई ।
या फिर आद जुगाद से चली आ रही भेद विभेद ने जाती प्रथा से नया रूप ले लिया है ।
इस नजरिए से तो समाज, सभ्यता में तो कोई विकास ही नही हुआ है
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