पिता मेरे कल्पतरु मेरी सभी इच्छाओं के पूरक, पिता मेरे हिमालय मेरी सभी समस्याओं की अड़चन, पिता मेरे महासिंधु मेरे जीवन के प्रत्येक मोड़ के गंतव्य किंतु मैं... मैं किसी विशेषण योग्य नहीं
कुछ लोग हैं मिलते नहीं कोई ख़त भी हैं लिखते नहीं कुछ बात भी कहते नहीं कुछ बात भी करते नहीं कुछ प्रेम में सुनते नहीं कुछ प्रेम में कहते नहीं फिर क्या ही सुना जाए? और क्यों ही सुना जाए?
मुस्काते अधर औ मधुर कंठ ने ही है प्रेमी बनाया ज़्यादा से ज़्यादा विचारूं तुम्हीं को मैं ज़्यादा से ज़्यादा निहारूँ तुम्हीं को मैं ज़्यादा से ज़्यादा करूँ बातें तुमसे मैं ज़्यादा से ज़्यादा सुनूं बातें तुमसे मैं ज़्यादा से ज़्यादा रहूं संग तुम्हारे मैं ज़्यादा से ज़्यादा यही वर है ईश्वर से ज़्यादा से ज़्यादा यही मन भी चाहे है ज़्यादा से ज़्यादा
रहा दे वचन तुमको ज़्यादा से ज़्यादा "रहूँगा समर्पित मैं पूरा का पूरा"
दिल का आँखा खोल गई पता नहीं क्या बोल गई होंठो की गठरी खोल गई मुझमें अपना रस घोल गई कहा उधारी शौक नहीं चुंबन का मोल भी तौल गई चौंकाया तो तब उसने जब मेरी बांह मरोेर गई हल्की मुस्की से झोल कर गई मन ही में हमको लोल कह गई
कल रात प्रिये जो चुंबन था वह इस गर्मी में चंदन है जो बकर बकर तुम लगा चली ये आग हृदय की बुझा चली सब सोच रहे हैं, आग बुझी मतलब इनकी तो बात जमीं पर वो क्या जानें, जो प्यास बुझी वह अमर अनंत अनाविल है।