मंत्रणा कोई भी न सफल हो सकी
प्रीत को तो समर में उतरना ही था
हारना प्रेम में सब अमर कर गया
जीत जाता प्रणय फिर तो मरना ही था
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मौन बंसी मौन होकर क्या बताये
हर समर्पण सांस से हारा हुआ है
मैं अकेलेपन का वो उठता धुआं हूं
जो तुम्हारे दीप का मारा हुआ है-
हम उपासक हैं नहीं हम देवता हैं
हमको ही अमृत पिलाया जायेगा
यह अजब दुनिया है इसमें जी गये तो
प्यार में मरना सिखाया जायेगा-
ये समय इक अनूठा उपन्यास है
जिसमें अपना भी होना अनायास है
प्यास का ये सफ़र है बड़ी दूर का
जबकि घर तो नदी के बहुत पास है
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सब जो कहते हैं सुनने की कोशिश में हूँ
अब मैं चुपचाप रहने की कोशिश में हूँ
सब कहा जा चुका कुछ न कहने को है
बस इसी दुःख को कहने की कोशिश में हूँ-
हम जो हो जाते रोती नमीं व्यर्थ थे
प्रार्थना में जो होती कमीं व्यर्थ थे
हम अकेले थे सो काम के भी रहे
तुमको पा जाते फिर तो हमीं व्यर्थ थे-
चंद्रमा
रात के सिर लगा घाव है चंद्रमा
घाव सहकर बढ़ा भाव है चंद्रमा
वो तुम्हारी कमीं से घिरा दुःख है जो
इक उसी दुःख का दोहराव है चंद्रमा
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प्रीत के एक प्रारूप का सूर्य है
मुझको लगता था कि धूप का सूर्य है
सारी दुनिया मेरे मन का अँधियार है
हर उजाला तेरे रूप का सूर्य है
अमन अक्षर-
तुम न थे मन के सारे मनन व्यर्थ थे
तुमको देखा नहीं था नयन व्यर्थ थे
तुम बिना ज़िन्दगी के सभी आकलन
थे महज़ आकलन आकलन व्यर्थ थे-
मन का कुछ भी नहीं सांस के योग हैं
ग़म हो या हो ख़ुशी दोनों ही रोग हैं
आप रोती हुई उम्र के साथ हम
ज़िन्दगी से निभाते हुए लोग हैं-