दर्द ग़ैरों का भी अपना सा लगा है लोगो
मुझको ये वस्फ़ मेरी माँ से मिला है लोगो
उसके क़दमों के निशाँ हैं मैं जिधर भी देखूँ,
घर तो माँ का ही तसव्वुर में बसा है लोगो
जो उसूलों का दिया माँ ने किया था रौशन
उम्र भर मुझको मिली उसकी ज़िया है लोगो
उम्र को मुझपे वो हावी नहीं होने देती
जब तलक माँ है ये बचपन भी बचा है लोगो
मुश्किलें हो गयीं आसान मुझे सब 'आलोक'
मेरे हमराह , मेरी माँ की दुआ है लोगो
- आलोक यादव
वस्फ़ – गुण, तसव्वुर-कल्पना, ज़िया -प्रकाश ,
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यही होगा कोई तुझ सा शरीके - ग़म नहीं होगा
सिवा इसके तेरे जाने से कुछ भी कम नहीं होगा
तेरी हर बात मानें हम तेरे नखरे उठाएँ हम
कभी ये हो भी सकता है मगर हरदम नहीं होगा
- आलोक यादव
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भारत के शोषित-वंचित समाज के उद्धारक श्रद्धेय बाबा साहब को, उनके अवतरण दिवस पर, हम कृतज्ञ भाव से स्मरण करते हैं।
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मिट्टी ने जब ख़ुद को ढीला छोड़ दिया
कूज़ागर के तब सारे अंदाज़ खुले
- आलोक यादव
कूज़ागर : कुम्हार-
आँखें बंद करूँ तो मन का राज़ खुले
और ख़ामोशी ओढ़ूँ तो आवाज़ खुले
धुंध छटे तो कुछ रौशन हों ज़हनो–दिल
पिंजरा टूटे तो अपनी परवाज़ खुले
फिर ऐसा हो तुझ में फ़ना हो जाऊँ मैं
फिर मेरे अंजाम से एक आग़ाज़ खुले
मिट्टी ने जब ख़ुद को ढीला छोड़ दिया
कूज़ागर के तब सारे अंदाज़ खुले
दीप बुझे तो फ़िक्र का सूरज जाग उठा
दर्द थमा तो मुझ पर मेरे राज़ खुले
- आलोक यादव
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मंज़र हमें यहां कोई अच्छा नहीं लगा
इनमें कोई भी रंग तुम्हारा नहीं लगा
- आलोक यादव-
यूं तो अच्छा है कि पहुंचा नल से जल
गाँव के हैं पर सभी पनघट उदास
- आलोक यादव-
बर्फ़ गिरने लगी पहाड़ों पर
जिस्म को अपने ढक रही है हवा
- आलोक यादव — % &-
कुछ ऐसे बदहवास हुए आंधियों में लोग
जो पेड़ खोखले थे उन्हीं से लिपट गए
# ताहिर तिलहरी-