एक छोटी खिड़की से दिन रात तकते रहती हूं,
धूप-आंधी, हवा -पानी न जाने कितने मौसम तकती हूं।
कोई इल्ज़ाम लगाता है कोई ताना दे जाता है,
मैं सबको सुनती हूं और भूलती चलती हूं।
कोई मंजिल कहता है कोई मुसाफिर बना जाता है,
जिसे जैसा मेहसूस होता है वो वैसा बताता है।
मैं आंसू छुपाया करती हूं मैं मुस्कुराया करती हूं,
कोई पूछे तो रुकती हूं, फिर पानी सी बह जाया करती हूं।
मेरे सवेरे मेरे सपने हैं मेरी राते मेरी उम्मीद,
दोनों मेरे राहों में है और मैं उन्हें साथ लिए चलती हूं।
कहते है वक्त मुठ्ठी में नहीं होता,तभी तो,
मैं अपनी खामियां चुनती हूं और धागे में पिरोये चलती हूं।
चाहती हूं जिसका साथ उसे साथी नहीं कह पाती,
सब को खुश रखने के खातिर मैं खुश नहीं रह पाती।
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