प्रेम:
तुम प्रेम को अभिव्यक्त करने का प्रयास कर सकते हो, पर उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते ।
तुम प्रेम को अक्षरों में उकेरने का प्रयत्न कर सकते हो, उसे आकार देने का यत्न कर सकते हो, परंतु ना उसे उकेर सकते हो, ना आकार दे सकते हो ।
तुम हजारों युक्तियाँ लगा सकते हो उसे मानवीय सीमाओं में बाँधने का , पर सफल नहीं हो सकते , सफल इसलिए नहीं हो सकते की ये असंभव है, परंतु इसलिए की, प्रेम मानव निर्मित समस्त कृतियों से परे है,
प्रेम पूर्ण प्रकृति है, प्रेम शाश्वत है, इसलिए तुम जब भी प्रेम को किसी उपमान में बाँधने का प्रयास करोगे असफल हो जाओगे,
प्रेम को बस अनुभव किया जा सकता है, व्यक्त नहीं, क्यूंकि वाक्य मानवीय है और अनुभव दैवीय।
प्रेम को अगर कभी व्यक्त करने के सबसे समीप भी आए तो पाओगे की ईश्वर ही एक उपनाम है जिसमे प्रेम को संपूर्ण समाहित देखा जा सकता है, पर फिर तुम पाओगे की ईश्वर भी हर कृति से परे पूर्ण प्रकृति है, शाश्वत है ।
इसलिए तुम पाओगे कि जो प्रेम की खोज में निकला वो ईश्वर में विलीन हो गया।
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“Some people will never fit into your life, no matter how much you want them to.”
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Someone can be madly in love with you and still not be ready. They can love you in a way you have never been loved and still not join you on the bridge. And whatever their reasons you must leave. Because you never ever have to inspire anyone to meet you on the bridge. You never ever have to convince someone to do the work to be ready. There is more extraordinary love, more love that you have never seen, out here in this wide and wild universe. And there is the love that will be ready.
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ढूँढता हूँ एक चेहरे को हज़ारों में,
शक्लें मिल जाती हैं मगर फिर भी अधूरी सी रह जाती हैं-
तू बारिश की बूँदों सी शीतल, मै तपती हुई ज़मीं हूँ,
तेरा मुझे छू कर जाना, मुझसे लिपट जाना और मुझमें ही होकर रह जाना,
मुझे शक्ति देता है सृजन की, नव जीवन के आरंभ की
मै माटी की वो सोंधि ख़ुशबू सा बिखर जाता हूँ , मै हरियाली सा निखर जाता हूँ, मै जो टूटा हुआ था हज़ारों टुकड़ों में अब तक, तेरे आलिंगन से बंध सा जाता हूँ
तू चेतना है इस अवचेतन मन की, निष्प्राण जीवन की एक तू ही तो श्वांश है
जो खुद में सहेज कर रख लिया तुझको तो जीवन, अन्यथा नीरसता और अवसाद है
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हर साज़ को आवाज़ ही मुकम्मल करे ये ज़रूरी तो नही,
कि अल्फ़ाज़ों को पिरोकर मोतियों सा जो काग़ज़ में उकेरूँ ,
वो किसी गीत से कम भी तो नही|-
रेत को मुट्ठी में बंद करने की कोशिश हजार करता हूँ,
मै अब भी तेरे लौटने की दुआ हर शाम करता हूँ
बेघर हूँ मै एक अरसे से जो बाहों से तेरी फिसला
तेरी बाहों में सिमटने की दुआ हर रात करता हूँ
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सबने चुन लिया है अपना अपना ख़ुदा,
जो किसी को भी ना मानूँ तो किसके पास जाऊँ ।-
क्या नदियाँ, क्या दरिया, क्या समन्दर
सब कुछ तो पी गया हूँ मैं।
ज़रा गौर से देख मुझे मेरे क़ातिल,
देख, तेरे बिना भी जी गया हूँ मैं।।-
मैंने चाँद को बेदाग़ देखा है,
क़रीब से तुझे जो आज देखा है
मानो क़बूल हो गई हों अर्ज़ियाँ सारी,
तूने पलट कर मुझे जो आज देखा है।।
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