एक शेर ग़ालिब सा सुना दुँ क्या,
तुम कहो तो दिल को गुलज़ार बना दुँ क्या,
अगर तुम हँसना चाहते हो तो मुन्नवर सा भी हुँ मैं,
और दर्द सुनना चाहते हो तो शायर जानी बन जाऊँ क्या।
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अपने इश्क़ की किताब जला दी मैंने,
जो सच्चाई थी वो बता दी मैंने,
गर तु वफादार हैं तो रिश्ता निभा मुझसे,
वरना तुझे भी मुझ सी फरेबी मान ली मैंने।
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हाँ वो था तो अपना मगर कारनामा दुश्मनो वाला किया,
जहां जहां से था मैं जख्मी उस जगह को उसने फ़िर से नोच लिया।-
हाँ वो था तो अपना मगर कारनामा दुश्मनो वाला किया,
जहां जहां से था मैं जख्मी उस जगह को उसने फ़िर से नोच लिया।-
ख़्वाब-ए-गफलत से मैं जाग आ जाऊँ तो अच्छा हैं,
इश्क़ के कारनामो से मैं बाज़ आ जाऊँ तो अच्छा हैं,
जो हासिल हैं वो ना रहेगा ता-उम्र मेरे साथ,
तक़दीर के इस फलसफे को मान जाऊँ तो अच्छा हैं।-
तेरी मेहफिल में गुलज़ार साहब की ग़ज़ल सा हूँ मैं,
माहौल बन जाने तक मेहफिल खत्म हो जाने तक।-
ये दुनिया मुझ पर नज़रे जमाये रखती हैं,
मुझे अपने मकाम पर बिठाये रखती हैं,
बात ये अलग हैं की मुझ में कमिया हज़ार निकलते हैं ये लोग,
बस यही कमिया मुझे और कामीयाब बनाये रखती हैं।-
मेरी हैसियत पूछता है बता तु अपनी औकात क्या रखता है,
घिसी पीटी ही सही मगर जिंदगी जीता हुँ अपने हिसाब से,
तु तो हर रोज अपना मालिक बदलता है।-
अब ये दिल के दर्द मुझसे संभाले नहीं जाते,
ले कर कलम अल्फ़ाज़ काग़ज़ पर सवारे नहीं जाते,
तुम मेरे ही नहीं रहोगे जिंदगी भर इस बात पर मुझे पुरा ऐतमाद हैं,
तो फ़िर जिसके साथ गुजारनी हैं जिंदगी,
उसके पास चले क्यूँ नहीं जाते।-
मैं कहीं भी रहा मगर अकेला नहीं रहा,
ग़मों के साथ रहा मगर गमज़दा नहीं रहा,
तेरे शहर से अगर मैं लौट आया तो ताज्जुब कैसा?
मैं बंजारा किसी शहर में जिंदगी भर नहीं रहा।-