अल्फ़ाज़- ए-नैरिती   (@अल्फ़ाज़_ए_नैरिती ....✍)
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Joined 22 August 2019


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देखो ना ! बन्द कर लिए हैं ,सभी दरवाज़े उम्मीद के मैनें,
इस दिल को आदत हो गई , तुम्हारी यादों में धड़कने की ।

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रात का वादा था मुझसे , हर रोज़ सुकूँ की नींद ले आएगी,
पर वो भी औरों की तरह निकली , कितना मुझे तड़पायेगी।

बस लगी है मुझे परखने में , यादों के दबे बवंडर उठाकर ,
डर लगता है अब तो यूँ , क्या पता ये क्या गुल खिलाएगी।

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साँस लेते हैं मगर , अब जीने की हसरत नही,
इल्ज़ाम वही लगे ,जो मेरी कभी फितरत नही।

फिक्र करने की आदत , मुझे स्वार्थी बना गई,
अब ये हालात हुआ है, जिंदगी भी कटती नही।

सब कुछ सीखा मैंने , बस भूलना ही न आया ,
अब यादों में उनकी ,शब-ए-हिज़्र गुजरती नही।

बेसबस दिल धड़कता है ,ज़ज़्बातों को मार कर,
अब दूरियों में कहीं ,उम्मीद-ए-वस्ल दिखती नही।

--@अल्फ़ाज़-ए-नैरिती...✍✍




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दिल की बातें दिल तक , रहें तो ही अच्छा है,
बयाँ कर देने से अक्सर , लोग यूँ रुठ जातें हैं।

ज़ज़्बातों का मोल नही ,स्वार्थ की दुनिया में,
मतलब निकलते ही , यहाँ साथ छूट जाते हैं।

कुचल देते हैं एहसासों को , ज़रा सी बात पर,
अपना बनाकर यहाँ , अपनों को लूट जाते हैं।

फ़रेब के बाजार में , सच्चा प्यार दिखता नही ,
ज़रा-ज़रा सी बात पर , यहाँ दिल टूट जाते हैं।

अब वो ज़माना नही , रिश्ते दिल से बनते जहाँ,
दिमाग के चक्रव्यूह में , दर्द बेपनाह घूट जाते हैं।

निभाना है दूर तलक तो ,बातें दफ़्न करनी होंगी,
बातों की गर्मी से यहाँ , ज्वालामुखी फूट जाते हैं।

--@अल्फ़ाज़-ए-नैरिती...✍✍






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सुनो ! तुम्हारे सीने से लगकर , शिकायतें तुम्हारी तुमसे करनी हैं,
हिज़्र-ए-लम्हात कैसे गुज़रे , वो कहानी भी सुपुर्द तुमको करनी है।

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आज फिर भूला वो फसाना याद आया ,
मुद्दतों बाद वो इश्क़ पुराना याद आया...!

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रात हसरत लिए वस्ल की , हर रोज़ गुज़र जाती है,
अलसाई सी सहर होती ,फिर तन्हाई बिखर जाती है।

चाँद आकर खिड़की में , दबे ज़ज़्बातों को जगा देता है,
डूबकर फिर उन्ही ख्यालों में , रूह तक सिहर जाती है।

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ये रब की मेहरबानी है , जो मैं अब तक जिंदा हूँ,
वरना वक़्त ने कसर न छोड़ी , मुझे आजमाने में।

कर दिया पूरा खर्च इश्क में , बाकी न बचा कुछ भी,
दूरियाँ मिली बदले में , सच्चा रहबर नही ज़माने में।

गुल तो खिले हर मौसम , पर बेवजह ही सूख गए,
रास न आई खुशबू प्यार की ,हम रहे बस निभाने में।

कोशिशें तमाम की , भूल जाए उन बीते मंज़र को,
पर जितना भुलाना चाहा ,वो उतने रहे याद आने में।

भरोसा भी उस रब का है , अनुकूल वक़्त होगा ज़ुरूर,
अभी तो सब बिसराकर , लगी हूँ खुद को समझाने में।
--@अल्फ़ाज़-ए-नैरिती..✍✍

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आहिस्ता-आहिस्ता ही सही , इश्क तो होने लगा है ,
यूँ मरमरीं स्पर्श उनका , मेरा तन-मन भिगोने लगा है।

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बड़ी तजस्सुस से पूछा उन्होंने हाल-ए-दिल मेरा,
जो मैंने दास्ताँ अपनी सुनाई बेसबब वो रो दिए।

बिखर गई यूँ ज़र्रा-ज़र्रा मोहब्बत लफ़्ज़ों में मेरे,
जो कागज़ कोरे थे मुद्दत से दर्द ने वो भिगो दिए।

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