बेपरवाह दुनिया....
रास्ते में बूढ़ी अम्मा चलते चलते गिर गई
गिरने दो....
कोई भूखा दो निवाले के लिए हाथ फैला रहा
फैलाने दो...
सड़क किनारे धूप में प्यासा पड़ा है वो जानवर
रहने दो....
पड़ोस वाले बाबा रात भर खांस खांस कर गुजर गए
गुजरने दो....
छोटा बच्चा परिवार से भटककर रो रहा है
रोने दो....
बगल मुहल्ले की लड़की की अस्मत लुट गई
लुटने दो....
भीड़ का शिकार हुई एम्बुलेंस वक्त पर अस्पताल नही पहुंचीं
मां का बच्चा मर गया
मरने दो...
ज्यादा बोझ उठाने के कारण मजदूर बेहोश हो गया
होने दो....
सब्जी बेचने वाले बाबा मोलभाव का शिकार हुए आज फिर भूखे सोए
सोने दो....
लापरवाही से फेंकी सिगरेट किसान की फसल जल गई
जलने दो....
बर्तन मांजने वाली दीदी आज फिर मजबूरी का शिकार हुई
होने दो ....
काम न मिलने की वजह से शिक्षित नौजवान ने आत्महत्या कर ली
करने दो....
दहेज की वजह से बारात लौटते देख लाल जोड़े में लिपटी दुल्हन आज फिर आग में लिपट गई
लिपटने दो....
भूख से बिलखते बच्चों को देखकर गरीब बाप ने भूख जहर से शांत की
करने दो....
वाह रे समाज आज फिर देखा तुझे करीब से
जिसका एक अंश मैं खुद भी हूं ....
कण कण करके विलुप्त होती जा रही
तेरी मानवता और प्रबल हो रहा अंहकार ....!
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हां ....
तुम बेफिकर रहो..
मेरी मौजूदगी
तुम्हे मेरा इल्म
भी न देगी....!!!-
कविता ......!
सोचा तुझे लिखूं
गर क्या ही लिखूं
कागज भी थे ...
स्याही भी थी ...
अक्षर भी थे...
वक्त भी था...
फिर क्या कमी थी
यही तो चाहिए...?
शायद खाली था ...
क्या....
अंतर्मन का वो कोना
जहां तेरी आहट थी...!!!
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क्या हम वहीं है ...
या बदलते वक्त ने
इतना बदल दिया है .....
कि अपना वजूद भी
पलट कर सवाल कर रहा....!!!-
जब जिंदगी एक अहम
पड़ाव पर आकर ठहरती है...
समझ आने लगता है क्यूं जरूरी है
ये अकेलेपन का मंजर
ख़ामोश है मगर शांत नहीं ....
जरूरी है ये एहसास भी
की अब कोई जरूरी नहीं
बहुत तो नहीं गर कुछ मिले
हमें भी यूं ही.....
अब ना उनकी कोई उम्मीद
नाही बची कोई कमी ...
कभी ये बेवक्त का शोर
जिसकी आहट तो नहीं
गर अब अंतर्मन को
झुलसा रही है कभी
जैसी भी है अब यही है....!!!
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ख़ुद के दायरे में खुद को ही ढूंढिए
साहिब .....
क्या पता ख़ुद से ही रूबरू हो जाएं....!!!
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कुछ तो है वरना यूंही नहीं फिर
उन्ही रास्तों पर लौट रहे है हम....
जी करता है खुद से रूबरू करले फिर
ये बदले हुए मंजर कुछ रास ना आए हमें
रातों को तब भी नींद न थी ....
पर सच कहें किसी की उम्मीद भी न थी
सुकून का तो पता नहीं पर .....
कुछ शांत सी हो गई थी ये जिंदगी
अब कौन आएगा हम सोचते नहीं थे....
कौन गया फर्क पड़ता नहीं था
कुछ लोगों की कुछ अपनों की
चुभती थी वो बातें ....
गर किसे पता था बताना भी क्यूं
कुछ चंद लम्हें उनके अफ़सोस के
हो गए कुर्बान जो साहिब
इतने जरूरी हम नहीं....
है कुछ ऐसे भी रिश्तों की डोर
जो कुछ वक़्त के दायरों में
छूट भी जाएं गर टूट सकते नहीं
जो हमेशा रहेंगे जिंदगी के
दूसरे पहलू में....
फ़िर उसी अकेलेपन की ओर
निकल रहें है हम ....
कतरा कतरा ही सही बिखर रहे हैं हम
शायद अब फिर साथ होकर भी
सिर्फ़ खुद का ही सफर चाहते हैं हम....!!!
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Kbhi kbhi smjh nhi aata h kya kre.....kaise sb thik ho jayega....!!!
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जरूरत है बदलाव...
गर जिंदगी के कुछ फैसलों में
जरूरी है आपका बिता हुआ कल
आपके अपनों का दायरा कम ही सही
आपका हो....
बातें कुछ से ही सही
गर सच्ची हो...
जैसे भी है वैसे ही दिखे
क्या ही फायदा हो....
उन गिने चुने रिश्तों का
गर झूठ का अक्श उसमे भी दिखे....!!!-