Akrit Kumar Chaturvedi   (आकृत कुमार चतुर्वेदी)
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Joined 15 March 2020


Joined 15 March 2020
21 SEP 2022 AT 22:26

प्रेम का नुक्सान
( तुम्हारा या मेरा )

अजीब चाह है ,
इसे भी देंह का हिस्सा बनना है ,
लेकिन अंतर्मन बिगसा , इसकी कैतियाने की आदत ,
जीवन भरमा देती है ।

बड़े लिहाज़ से किसी कैनवास में उतरती है ,
प्रचारित होती है , वह भी प्रेम से ,
फिर कहीं उसे चुहिया कुतर जाती है ।

वहम था ,
फिर फटे खीसे से किसी सिक्के की तरह सरक गया प्रेम ।।

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21 SEP 2022 AT 22:04

प्रेम का नुक्सान
( तुम्हारा या मेरा )

अजीब चाह है ,
इसे भी देंह का हिस्सा बनना है,
लेकिन अंतर्मन बिगसा, इसकी कैतियाने की आदत,
जीवन भरमा देती है ।

बड़े लिहाज़ से किसी कैनवास में उतरती है,
प्रचारित होती है , वह भी प्रेम से,
फिर कहीं उसे चुहिया कुतर जाती है ।

वहम था,
फिर फटे खीसे से किसी सिक्के की तरह सरक गया प्रेम ।।

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17 NOV 2021 AT 1:36

कैसे कोई अधभरा प्याला न छलके,
कैसे वह अधभरा कोई कविता लिखे,
कैसे वह अधभरा पूरा हो जाए,
कैसे वह अकेले से दुकेला हो जाये,
कैसे वह बिछड़े बहार के पास लौट आये,
कैसे वह उन आंखों को चूम ले,
कैसे वह उन होंठों को छू सके,
कैसे वह उस चेहरे का दीदार करे,
कैसे वह उनके पास रहे, अनन्त प्यार करे।।

नहीं समझ आता, 
समय निकल जाता है, सिर्फ सोचने में
  की अगला दिन न बीते रोने में,
नहीं रह पाते हैं हम, आपकी ऑंखों को देख नम,
  ऐसी सज़ा न दीजिये हमें, की गम में ही खो जाएँ हम,
ईमानदारी से कहें,
  हर दिन निकल जाता है, फिर कैसे मिले आपसे हम,
कैसे उन प्यार भरी रातों का नाम याद कर,
आपमें समाकर फिर,
    हर रोम में प्यार को एहसास कर,
ज़िंदा रहे आप हममें और आपमें हम ।।

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7 JAN 2021 AT 23:50

खिड़की से झलकता ये अनंत समाँ,
नीली सी चमक, संतरी का तेज़ और काले की
ख़ामोशी में दबा ये आसमाँ |

सरसराती हुई टहनियाँ पत्तियाँ कह रहीं संग
दीवारों सहित,
बस एक तुम हो यहाँ |

हूँ साथ कइयों के, मगर आज महसूस होता है,
पहाड़ों  का अकेला जहान |

चिल्लाना चाहता हूँ, बता देना चाहता  हूँ,
अकेला हूँ, मगर
स्वार्थी का जिल्द नहीं ओढ़ना चाहता हूँ |

हर लिखते - कटते शब्द, काँपती आवाज़ और
दुःख की छिड़न,
वे हिसाब हैं
जिनका न जोखा  है न गवाह
सिर्फ एक अनकहा-अनदेखा इतिहास है |  

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24 OCT 2020 AT 9:01

मैं कलि हूँ.....






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11 OCT 2020 AT 10:37

एक डोर - बचपन की....














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1 OCT 2020 AT 21:31

Time to live with
Time to grow with,
Am I too late to meet with
Or too early to match with,
Don't know
But I'll always try to move with.

Am I too young to meet with
Or too old to stay with,
Don't know
But I'll always live between whom I love with.

Am I too fake to hate with
Or too real to ditch with,
Don't know
But I'll always follow the same that I grew with.

A thing I know is
There are least to grow with
But lot to learn with.

So you choose how to move with,
Because I have chosen mine.

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26 SEP 2020 AT 0:48

I need a part to play,
Where I would be
writer and director of my tale,
Where there no one could cross my grade,
But, I don't mean a dictator to say.

What I need everyone, nearer to stay,
No need to get going away,
Like me, one can live in own way.

I need a part,
Where there, I can live with past,
Can see again, how I raised,
Mishaps to learn with,
Without leaving them away.

I need a part,
Where I can have new kinsfolk to live with,
Without get bereaving in way.

Just tell me, What I need to pay!!!

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26 AUG 2020 AT 1:20

हर हंसी शांत हो गई,
हर इंसान ग़ायब हो गए,
मुझे यहाँ अकेला छोड़,
मेरी ख़ुशी साथ ले गए।

हर रोज़ बाँटती हूँ,
अपने अकेलेपन का हिस्सा अंधकार के साथ,
कितनी अजीब हो निशा,
साथ हो कर भी अकेली हो।

ख़ामोश हो, मगर मेरी ज़हन का आराम हो,
मेरे अकेलेपन का हिस्सा हो,
और हर हिस्से का भराव हो।

थमीं हूँ, अपनी खोई ऊर्जा के बिन,
कराहती करवट बदल रही हूँ, बहती आँसुओं संग,
अब है इंतज़ार उस हिस्से का, रेंग रही हूँ जिसके बिन।।

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26 JUN 2020 AT 7:27

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