सो जा बेटी तुझे , देश को जगाना है
देश की आन बन, तुझको जगमगाना है
फिर ये दुनिया तुझे सोने दे भी न दे
माँ का आँचल तुझे फिर मिले न मिले
तुझको झांसी की रानी सा लड़ना होगा
सबसे को लेकर के साथ तुझको बढ़ना होगा
तुझको सुबह नयी गर अब ले के आना है
तो सो जा बेटी तुझे, देश को जगाना है
देश की आन बन, तुझको जगमगाना है-
प्रेम की कविता, राधा की कहानी, विरह के छन्द - अभय की ज़बानी
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4 वर्षो का रण जीता
जो लड़ा मुखर्जी* मैदान में
तब जा के रोटी जन्मी है
उठा है सर सम्मान में
न रंग ही खेले होली में
न दीप जले दीवाली में
जब त्याग तपस्या बन दहकी
फिर घर महका खुशहाली में
वो पोषित कर मुझको जो
खुद शोषित ही होता आया
वो मान पिता का, माता की
उम्मीद मैं पूरी कर आया-
फूलों सी कोमल
झरने सी निर्मल
दिमाग से पैदल
पर दिल से अव्वल
लड़कियाँ
माँ का मान
पिता की शान
भाई का गुमान
और
पति की आन
हैं, लड़कियां
प्रकृति का रूप
शक्ति स्वरूप
भूमिका बहुरूप
जीवट अनूप
लड़कियां-
आज कहे देता हूं
फिर मत कहना के बताया नहीं
मोहब्बत ज़ोरदार है तुमसे,
वो अलग है कभी जताया नहीं-
मुझे रोता हुआ देखो, तो आँखे फेर लेना तुम
तेरी हाज़िरी में रोयी तो, दिल टूट जाएगा
हाथों में ले के हाथ मैं, तेरे ही संग चली थी
तुझसे ही दिल दुःखा तो, हाथ छूट जाएगा
जिस छाँव को माना था, अपने ही सिर का ताज
वो साया देखो कैसे, ग्रहण बना है आज
जिन आँखों के सागर में, तुम डूबते जाते थे
जिन पलकों की ज़द से, चुपके काजल चुराते थे
उन आँखों के सपनो को, क्यों तुमने ऐसे तोड़ा
क्यों सीधी सी जिन्दगी को मेरी, ग़म की ओर मोड़ा
सीधी सी जिन्दगी को मेरी, क्यों ग़म की ओर मोड़ा...-
जिंदगी यूं गुज़र गयी
के जीभर जी भी न पाए
रिसते हुए ज़ख्मो को अभय
सी भी न पाए
सांसो से रोज़ लड़ते
हर वक़्त रहे बढ़ते
महफ़िल का वक़्त बीता
और जाम पी भी न पाए
अब पुरखुलूस तैयारी
रुखसत की अब है बारी
ख्वाहिश थी बस दीदार की
पर, तुम ही नहीं आये...
जिंदगी यूं गुज़र गयी, के जीभर जी भी न पाए
रिसते हुए ज़ख्मो को अभय, सी भी न पाए-
रात भर
जलती रही वो
करवटें बदलती
थिरकती मचलती
मग़र तुम न आये
न आया संदेसा
कई रातें बीती
कई वर्ष बीता
उम्मीद में तुम्हारी
दीपक को वो जलाये
है राह देखती वो
पलकों को यूं बिछाए
सुध बुध भुला के अब वो
बस नाम जप रही है
अब आ भी जाओ कान्हा
राधा तरस रही है.....-
चलो फिर कमाल करतें है
स्याही में लहू घोलकर सवाल करते हैं
चलो कमाल करते हैं
वो चुप है घर पड़ोसी के जलतें जाते हैं
रूंहे भी सो गयी है अब आंसू भी नहीं आते हैं
रुपयों की आग में उन्होंने मुल्क झोंककर
जन्नत सी सरज़मी को वो दोज़ख़ बनाते हैं
और
देखते नहीं के दुनिया राख हो रही
इंसानियत भी जल के यहाँ ख़ाक हो रही
फिर भी अमन पसन्द हिन्द रास न आया
ये कौन सियासत यहाँ पे आम हो रही
लहू के सैलाब में कई नाम 'अंकित' हो गए
देश के 'रतन' कई इस तूफाँ में खो गए
इंसानियत के नाम को भी तार तार कर
गुमराह इस कदर हुए के खुद ही इब्लिस हो गए-
उस औरत को क्या जानो तुम
दो बच्चों की जो माता है
इच्छायें स्वाहा करती वो
बच्चों की भाग्य विधाता है
ख़ुद को ख़ुद में ही दफनाया
और आंसू सारे सोख लिए
निज जीवन हवन दहन करती उसे
न्यौछावर करना आता है
क्या गांधी क्या टेरेसा हुए जिन्हें
आज भी जाना जाता है
वो माँ गुमनाम ही चली गयी
यश उसे ज़रा न भाता है
नारी का परम स्वरूप कहूं
या प्रकृति स्वरूपा बतलाऊँ
हे माँ तू बस अब बोल भी दे
कैसे मैं तुझे समझ पाऊँ
तू परे है सारी उपमा से
तेरी गरिमा क्या गाऊँ मैं
तू देवी स्वरूपा प्राप्त हुई
पा धन्य स्वयं, इतराउँ मैं-