किसी अपने से..
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मैंने शहर को देखा
और मैं मुस्कराया
वहां कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और
वापस न आया-
ये जो डायरी पड़ी है
मेरे आलमारी के एक कोने में,
उसमे लिखा कुछ नहीं
छिपा गहरा राज़ है,
इज़हार है..
इन्तजार है,
खयाल है..
ख्वाब है,
अश्क़ है..
अल्फ़ाज़ है,
इश्क़ है..
बदनाम है।-
तू नहीं तेरी याद नहीं,
ऐसा तो कुछ भी नहीं,
तू है,
तेरी याद भी है,
वक़्त की साज़िश भी है,
तू रूह है,
तू मुझसे कभी अलग ही नहीं।-
मुझे याद है
बचपन में मेरा स्कूल जाना,
सुबह का नाश्ता,
और स्कूल जाते वक़्त मेरा रुठ जाना,
फिर मम्मी का डांट के मनाना,
और पापा का 2 रुपये का लालच दे कर मनाना,
हालांकि....
ये बस यादें बन के रह गई हैं।-
कुछ दिनों पहले की ये बात है..
एक शख़्स अंजान सा था..
अब वक्त ऐसा है..
वो जान से भी ज्यादा अपना है।-
एक रोज़ यूँ उनसे मुलाकात हो गई
वो देख कर हमें मुस्कुरा पड़े,
हम उन्हें मुस्कुराता देख सारे ग़म भूल गए,
मेरा वक़्त थम गया था उन्हें देख कर,
ये बंदिश थी या कुछ और,
न वो आगे बढ़े और न हम उन्हें गले लगा पाए,
ये पहली मुलाकात नहीं थी हमारी
हर रोज़ ऐसे ही मुलाकात होती है
ये भी सच है,
हम जब भी मिलते हैं पहली दफा मिलते हैं।-
ये शब्दो का खेल,
महज एक खेल नहीं..
जज्बात हैं, दिल के एक कोने में दफन कहीं,
जो शब्दों में बयां होते हैं..!
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बिना रौशनी ये भी साथ छोड़ जाती है,
पल भर के लिए ही सही
अंधेरा होते हीं परछाई भी गुम हो जाती है।-