122 122 122 122
मुसलसल चलेगी बग़ावत फ़लक से
की जब तक न आये क़यामत फ़लक से
भले भीड़ में हूँ प कोशिश है पूरी
अलग ही दिखे मेरी तुर्बत फ़लक से
ज़रा देखो उर्यां सरों की अमीरी
बड़ी मिलती है छत की सूरत फ़लक से
हज़ारों मरे शिव के मन्दिर के बाहर
कराता है सैलाब नफ़रत फ़लक से
हमीं ने परिंदे कफ़स में हैं रक्खे
हमीं कर रहे हैं शिकायत फ़लक से
कभी बेवा सोचे की खुद को जला लूँ
तभी तेज़ बारिश की हसरत फ़लक से
यक़ीनन कबूतर निशाना बना है
गिरा आज आँगन में इक ख़त फ़लक से
नहीं है अखिल सिर्फ उड़ने में लज़्ज़त
ज़मीं पर है ज़्यादा मसर्रत फ़लक से
~ अखिल-
212 212 212 212
एक क़ातिल हुनर से बनाया गया
जब कुल्हाड़ा शजर से बनाया गया
फँस गया आँख के एक हिस्से में मैं
जो यक़ीनन भँवर से बनाया गया
अब हकीमों के बस का नहीं ज़ख्म जो
उसके तीर-ए-नज़र से बनाया गया
जब अमीरी उड़ी तो लगा पैसे को
बाज के जिस्म-ओ-पर से बनाया गया
बेटी की रुख़्सती का ये दस्तूर बस
नारी शक्ति के डर से बनाया गया
सच बताऊँ तो हम दोनों में फ़ासला
एक झूठी खबर से बनाया गया
दर्द दिल का मेरे सर पे चढ़ता नहीं
उसका दिल दर्द-ए-सर से बनाया गया
जब निचोड़ा धनक को तो जाना यही
उसके लब के कलर से बनाया गया
उसकी शादी में खाया तो कड़वा लगा
शाही टुकड़ा शकर से बनाया गया
आप कुछ भी कहें इश्क़ को भी अखिल
कृष्ण मीरा के सुर से बनाया गया-
221 2122 221 2122
मत पूछिए "भला क्यों रिश्ते सँभालते हैं?"
सहरा में आँसू तक को प्यासे सँभालते हैं
साहब कि ये हवेली है दश्त की ज़मीं पर
साहब हवेली में क्यों पौधे सँभालते हैं
हमने सँभाला अपने अंदर उसे है मानो
मुफ़लिस फटे फिरन में पैसे सँभालते हैं
कंधे शरीफ घर के ये जानते हैं बेहतर
हो भीड़ तो दुपट्टा कैसे सँभालते हैं
बनवा के काँच के घर इतना तो याद रखना
उन घर की इज़्ज़तें फिर पर्दे सँभालते हैं
मेरे कबीले से ग़ुम हैं दौलतों की रस्में
अपने बुज़ुर्ग के हम सपने सँभालते हैं
इक्कीसवीं सदी के आशिक़ बहुत हैं शातिर
करियर सँभालकर फिर क़समें सँभालते हैं
था बाप से जुदा और भूला अखिल कि आगे
ये दास्तान खुद के बच्चे सँभालते हैं
~ अखिल-
2122 1122 1122 22
1122 1122 1122 22
क्या मैं माँगू कि दिखे मेरी समझदारी भी
एक माँगा उसे और उसकी वफ़ादारी भी
चारासाज़ों से युँ मिलने का भला क्या मतलब
वही लड़की जो दवा है, वही बीमारी भी
एक ही शख्स था दुनिया-ए-सियासत में जो
बिना खुदगर्ज़ी के करता था तरफदारी भी
घर चलाते हुए साँसें भी चलानी मुझको
साथ दफ्तर के निभानी है सुखनकारी भी
मन की बातों की जगह मेरा वज़ीर-ए-आज़म
जुमलों के साथ में करता है अदाकारी भी
क़ैद है आँख में मंज़र शब-ए-मोहर्रम सा
खून के साथ दिखाती है अज़ादारी भी
~ अखिल-
2212 2212 2212
गर्दिश में कुर्बान हर खुशी करते रहे
बिन सर उठाये नौकरी करते रहे
दफ्तर मुहब्बत और उसमें वो परी
फिर काम जैसी आशिक़ी करते रहे
मेरे सिवा कोई नहीं समझा उसे
मेरे सिवा सब दिल्लगी करते रहे
वो शाहज़ादी जब अँधेरे से डरी
जुगनू तरह हम, रोशनी करते रहे
वो तोड़े ग़र तो फूल साँसें भर उठे
जिसको न तोड़े , खुदकुशी करते रहे
इज़हार ख़ातिर बात तो कर दी शुरू
इज़हार ना कर , शायरी करते रहे
ख़ामोश छत पर सिर्फ थे वो और हम
जो कह नहीं सकते , वही करते रहे
हम दाद के शौकीन उसकी बातों पर
"बेहद, मोहब्बत आपकी " करते रहे
~ अखिल
-
सरेआम उसको अपना बताना ज़रूरी समझा
भरी महफ़िल में हाथ मिलाना ज़रूरी समझा
न जाने क्या बात हुई हमारी नज़र नज़र में
की हमने चुराना ,उसने झुकाना ज़रूरी समझा
दिल ही अकेला क्यों जले इस बंद कमरे में
सिर्फ इसीलिए चराग़ जलाना ज़रूरी समझा
कईं और ऐब थे मुझमे अगर छोड़ के जाना था
लेकिन उसने सिगरेट का बहाना ज़रूरी समझा
एक रोज़ जो देखी उसकी ज़ुल्फों की शरारत
बस फिर हर रोज़ कंघी छुपाना ज़रूरी समझा
जख्म ऐसे सुनाने थे कि कानों को सुकून दे
लिहाज़ा खुद को शायर बनाना जरूरी समझा
-
ऊपर शिकारी परिंद नीचे पिंजरे कमाल के
घायल उड़ते हम बीच उरूज-ओ-ज़वाल के
ये ग़ज़लें जो सुनने में बेहद दिलकश हैं
इन्ही के मिसरों में हैं मेरे किस्से मलाल के
किसी ने पूछ ली खासियत उस लड़की की
हज़ार जवाब दिए मैंने इस एक सवाल के
ज्यादा कुछ नहीं बस उसकी नज़रें झुक जाएँ
चर्चे हो कहीं जब मेरे हाल चाल के
मेरे दिल से एक बार भी पूछा नहीं गया
ले गया वो यहाँ, हाँ यहाँ से निकाल के
उसकी सारी चीज़ें वापस लौटानी थी मुझे
सब लौटा दिया सिवाय एक रुमाल के
तस्बी में पढ़ते रहे जिसकी लंबी उम्र हम
हाँ वही फ़िराक़ में है मेरे इंतेक़ाल के
बस दो चीज़ें मुझे रुलाने को काफी हैं
जानी के शेर , गाने जुबीन नौटियाल के
इंतेहाई सुख उसका कहना अखिल में बचपना है
इंतेहाई दुख फिर पूछना "तुम हो कितने साल के?"-
इश्क़ के धंधे में भी नफ़ा आ रहा था
मोहब्बत जा रही थी, तज़ुर्बा आ रहा था !
मसला ये नहीं वो मेरे सपनों में आई थी
मसला ये है कि मुझे भी मज़ा आ रहा था !
ये दो चार दिन की बात क्या ज़िन्दगी तेरे नाम है
तुम मिली भी तो तब थी जब मैं मरना चाह रहा था !
रात उसकी चौखट पे बिताकर जो सुबह दीदार हुआ
मानो दरवाज़े से चाँद और फ़लक से आफताब आ रहा था !
हम उसकी शादी रोकते तो भला कैसे रोकते
उसका मंगेतर खुद को अफसर बता रहा था !
घर से निकले मोहब्बत करने फिर वापस लौट आये
रास्ते मे एक आशिक़ का जनाज़ा जा रहा था !
उसने मख्ता पढ़कर कब की ले ली इज़ाज़त
हमारे ज़हन में अभी पहला मिसरा आ रहा था !
उसके कलावे को सुलझाते हुए छू लिया उसको
वापस डोर उलझा दी जैसे ही सिरा आ रहा था !
अब वक्त आ गया है खुद को शायर कह ही दूँ मैं
बीते दिनों रक़ीब मेरी ग़ज़ल गुनगुना रहा था !!
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इश्क़ के धंधे में भी नफ़ा आ रहा था
मोहब्बत जा रही थी, तज़ुर्बा आ रहा था !
मसला ये नहीं वो मेरे सपनों में आई थी
मसला ये है कि मुझे भी मज़ा आ रहा था !
ये दो चार दिन की बात क्या ज़िन्दगी तेरे नाम है
तुम मिली भी तो तब थी जब मैं मरना चाह रहा था !
रात उसकी चौखट पे बिताकर जो सुबह दीदार हुआ
मानो दरवाज़े से चाँद और फ़लक से आफताब आ रहा था !
हम उसकी शादी रोकते तो भला कैसे रोकते
उसका मंगेतर खुद को अफसर बता रहा था !
घर से निकले मोहब्बत करने फिर वापस लौट आये
रास्ते मे एक आशिक़ का जनाज़ा जा रहा था !
उसने मख्ता पढ़कर कब की ले ली इज़ाज़त
हमारे ज़हन में अभी पहला मिसरा आ रहा था !
उसके कलावे को सुलझाते हुए छू लिया उसको
वापस डोर उलझा दी जैसे ही सिरा आ रहा था !
अब वक्त आ गया है खुद को शायर कह ही दूँ मैं
बीते दिनों रक़ीब मेरी ग़ज़ल गुनगुना रहा था !!
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झलक देखने को मिली उसकी बस इतनी सी
मानो दो पर्दों के बीच आती रोशनी सी
सुना है उसको भी ग़ज़लें पसंद हैं
मतलब लिखनी पड़ेगी मुझे कोई अच्छी सी
यूँ तो पहले नहीं पड़े हम कभी इश्क़ में
फिर क्यों ये मोहब्बत लगती है दूसरी सी
मैंने उसके सामने सारा क़लाम पढ़ दिया
वो बोली! हाँ लग तो रही है ये शायरी सी
ख्वाबों से हूबहू ऱाबते के हम नहीं क़ायल
मुलाक़ात में रहनी चाहिए कुछ बेबसी सी
मैख़ाने से ताल्लुक नहीं और नशा भी करना हैं ?
मियाँ फिर करके देखो थोड़ी आशिक़ी सी
मुझे सुनने वाले वाकिफ़ थे मेरे ज़ख्म-दर-ज़ख्म से
लिहाज़ा उन्हें नई ग़जल लगी सुनी सुनी सी-