तेरा अक्स सा दिखने लगा हैं, मुझ पर नशा चढ़ने लगा हैं,
रात अपने परवान पर हैं, तू ख्वाबों मे आने लगा हैं,
रूबरू हैं तू करीब हूँ मैं, चाँद भी अब शरमाने लगा हैं,
गुम-सुम सी बैठी हो तुम, दिल-ओ-दिमाग मेरा ये खामोशी समझने लगा हैं
दिल्लगी हो और कुछ गड़बड़-झाला न हो, दाल मे कुछ काला दिखने लगा हैं.
तू भी पहल कर इश्क़-ए-दरिया मे डूबने की, वरना ये दिल तुम्हे 'अमृता' खुद को 'इमरोज' मानने लगा है
अब जा रही हो तुम इस मुख्तसर सी जिंदगी से, जाग 'अखिल' सवेरा होने लगा हैं...-
INDIA, RAJASTHAN, ALWAR, RENI, MACHARI 301408
इस से बेहतर तो था तुम रोज मिलती नए नए रास्तो पर, गलियों के मोड़ पर
हम बाते करते, फिर एक दूसरे को विदा करते कुछ अनकहा अनसुना अगले दिन के लिए छोड़.. नए उत्साह से फिर अगले दिन मिलते, इसी तरह रोज अगले दिन का छोड़ देते हम तुमसे प्यार एक साथ न करके टुकड़ो मे करते इस से बेहतर तो था
मैं तुम पर एक साथ न मरके टुकड़ो मे मरता......-
तेरे जाने का गम, खोखला कर गया मुझे जैसे दीमक कर देती हैं लकड़ियों को और कहीं का नहीं छोड़ती उसे..
मै भी कहीं का न रहा
तेरे लिए छोड दिया था जहाँ सारा, अब क्या ही करता यहाँ आ के दोबारा
हो गया मैं भी मिट्टी उस लकड़ी की तरह
तेरे जाने का गम, मौत दे गया मुझे....-
-तुम्हारे साथ मेरी 'बेहतरी'
कठिन डगर राह-ए- इश्क़ की,कदम लड़खडाते है थमा नहीं करते
चार दिन की ये तुम्हारी ख़ामोशी से, ताल्लुक मरा नहीं करते
ये तुम्हारा बेतकल्लुफ़ी वाला लहजा मेरे जेहन मे यूँ समा जाता
कि फिर तुम्हारी उन्ही बातों की यादों मे, मेरा हफ्ता आसानी से कट जाता।
तुम्हे जो हो पसंद, वो मुझे बतलायेगा कौन?
तुम नही रूठोगी तो रूठेगा कौन? और मै नहीं मनाऊ तो फिर तुम्हे मनाएगा कौन?
अब इस तरह ही बसर होगी अपनी बची उम्र 'अखिल'
वो तुझे बहुत सुनाएगी ,तु बस कुछ सुन लेना...
शायरी के लफ़्ज़ों से ज्यादा सुंदर हो ये जिंदगानी
कुछ सुर तुम लगाना, कुछ ताल मैं लगा लूँगा..-
आग उगल रहा हैं सूरज... पर क्या लग रही होगी तपत?
बड़े से मकान को बनाने मे लगे उस मज़दूर को..
सायकिल पर ठंड़ी- मीठी बर्फ बेचने वाले को..
सामान से भरे रिक्शे को पुल पर खींचते हुए उस आदमी को.... ?
- नहीं ,क्योंकि
"इनके पेट मे बचपन से जल रही भूख रूपी अग्नि की तपत सूरज के ताप से कई गुना अधिक हैं... "
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गुलाब,मोगरे के फूलों से महके उपवनो मे श्री कृष्ण की मुरली की कर्णप्रिय ध्वनि सी माँ,
शांत जंगल मे कल -कल का शोर करती निरंतर प्रवाहित नदी सी माँ,
ज्येष्ठ माह की दुपहरी मे सड़क किनारे नीम पीपल की ठंडी छाँव सी माँ,
सूखे कंठ को तर कर दे, कोरे घड़े का मीठा- शीतल पानी माँ,
वर्षा को तरसते सूखे खेतो मे, बरसते काले मेघ सी माँ,
पथिक की भूख मिटा दे अनजान पथ मे, पुरानी ठंडी रोटी माँ,
चोट लगने पर, गर्म पट्टी- मरहम सी माँ,
गरीब की सर्द रातो मे, कोयले की ताप सी माँ-
माँ
जन्म देती हैं माँ, माँ ब्रह्मा हैं
पोषण प्रदान करती हैं माँ, माँ प्रकृति हैं
प्यार करती है माँ, माँ कृष्ण हैं
बच्चो की मीत माँ, माँ सुदामा हैं
कर दे दान अपना सब कुछ बच्चो पर, माँ कर्ण हैं
संजीवनी ला दे अपने बच्चों को, माँ हनुमान सी
सुख त्याग, दुख भोग ले वनवास सा, माँ राम हैं
बुद्धिदाता अपने बच्चो की, माँ सरस्वती हैं
योग, तपस्या करे बच्चो के लिए, माँ शिव हैं
दे शाप उन्हे जो अहित चाहे उसके बच्चो का, माँ दुर्वासा हैं
मकां को घर बना दे सुंदर सा, माँ विश्वकर्मा हैं
हर कण कण मे माँ, हर भगवान रुप मे माँ हैं, माँ रुप मे भगवान संभव नहीं...-
कितना अद्भुत हैं जब हम सोचते हैं माँ पर...
तो ये सोच पाना कि जहाँ से ये तर्क- बुद्धि विकसित हुई है वो माँ द्वारा ही 9 माह तक गर्भ मे पोषित हैं...
मतलब जो हम सोचते हैं उसमे माँ शामिल होती हैं,
पर एक दिन जब हम सोचना बन्द कर देते हैं, हम मर जाते हैं सच हैं जब माँ नहीं रहती हम मर ही जाते हैं...
जिस बुद्धि को माँ ने विकसित किया उसी बुद्धि से माँ को सोच पाना, माँ पर लिखना इस बुद्धि का सर्वोत्तम उपयोग हैं..
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हर घर में हिंदी समायी हुई हैं.......
अम्मा एक 'उपन्यास' सी, जिसे हर पोता पढ़ता हैं..
माँ एक 'प्रेरणादायक कहानी' सी, जो हर बेटे को प्रेरित करती हैं.
बहन एक 'श्रेष्ठ काव्य रचना' सी, जिसे भाई बखूबी समझते हैं......
बेटी किसी कविता की 'सुंदर सी चार पंक्तियाँ' जिसे पिता हर वक़्त गुनगुनाता रहता हैं.... और
हमारी बुआ -उपन्यास, कहानी, और काव्य रचना के बीच मे लिखित "अतिशयोक्ति अलंकार" सी-
एक ख्वाहिश
उलझा सा रहता था मैं, तेरी बातों मे, तेरे सवालों मे
बातों के जालो से सुलझ नही पाते थे, सवालो के जवाब होते न थे
अब थोड़ा थोड़ा बदल रहा हूँ खुदको, थोड़ा थोड़ा भूल रहा हूँ तुमको
पहले जैसा होना चाहता हूँ मैं, तुमसे अनजान होना चाहता हूँ.
फिर मिलना चाहता हूँ तुमसे, फिर जुदा होना चाहता हूँ मै-