क्यूं है तू.... इस कदर जेहन में
डर बनकर डराता है काली परछाई सा..
क्या तुझे पता है....तू कितना सताता है
क्यूं है तू.... इस कदर जेहन में
बंजर है तुझमें मेरा जहां
समेटे खुद को किसी कोने में....
गुलदस्ता फूलों का, सूखे प्रेम का बागवां
संग तेरे बस पतझड़ है मन में उठते जज्बातों में....
क्यूं है तू....इस कदर जेहन में
कड़वाहट सा है तू जिंदगी मे,
या फिर.....कड़वा ही होता है स्वाद
स्वाद... तुझे चखने का...तुझे होठों पे रखने का....
तुझे हृदय से लगाने का.. स्वाद बस तेरा हो जाने का
क्यूं है तू... इस कदर जेहन में
नशों में दौड़ता है तू ज़हर बन कर,
मानों मलीनता की गंध वाला कोई इतर
मनोबल तोड़ता तेरा एहसास, पंखों को देता कतर
ना जाने पक्षियों की कोई अपनी उड़ान भी होती है
या फिर जीते हैं वो तेज झोकों की मेहर में
आखिर क्यूं है तू... इस कदर जेहन में
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तुम जो आ जाती तो, कुछ बुरा तो ना था
अमावस का चांद बन विचरती हो ना जाने किस डगर पर
जो रौशन जहाँ कर जाती तो, कुछ बुरा तो ना था
तुम जो आ जाती तो, कुछ बुरा तो ना था
सपनों ने ना जाने संग तेरे कितनी दुनिया बसाई है
जैसे सौर मंडल में पूरी धरती समाई है
तुम जो तारों सा टिमटिमाती तो, कुछ बुरा तो ना था
तुम जो आ जाती तो, कुछ बुरा तो ना था
चातक बनकर जो तेरी बाट मै जोहू
बारिश की पहली बूंद की ख़याली रोटी पोऊँ
संयोग वियोग की उपापोह में जागूँ सोऊँ
तुम भोर मे सूरज की नरमी सा मुझे जगाती तो, कुछ बुरा तो ना था
तुम जो आ जाती तो, कुछ बुरा तो ना था-
तू रचित मेरी कविता सी, होंठों पे तुझे गुनगुनाऊँ
जो अलंकृत करूं श्रृंगार तेरा, तेरा रूप देख इठलाऊँ
कभी लयबद्ध है तू, तो कभी जटिल स्वरों सी
तेरी संरचना समझ ना पाऊँ
जो अलंकृत करूं श्रृंगार तेरा, तेरा रूप देख इठलाऊँ
तू रचित मेरी कविता सी, होंठों पे तुझे गुनगुनाऊँ
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तूफानों से डरने की फ़ितरत नही हमारी
तेरे हृदय पर नीड बनाकर मयस्सर जहाँ करेंगे
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अब तो ठहाकों की गूंज से भी डरता है मन
ये दिल सन्नाटों में दबी चीख़ पर भी मुस्कुरा लेता है-
कुछ यूं सिलसिला है तुझसे मोहब्बत का
कि दूर होने के अहसास से ही टूट जाता हूँ
काफ़िला सजा है लोगों का तेरे दरबार मे
शायद इसीलिए अक्सर मैं छूट जाता हूँ
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Whom I was putting up the shutters with
Had already purchased all shares of my heart
"सावन"-
एक तुझसे बस राब्ता रखूँ , जहाँ मुकम्मल मेरा हो जाये
जो सदियां थी सूनी तेरे बिन, उन पर पहरा तेरा हो जाये-
मै शून्य था वो चेतना, साथ कहाँ आसान था
मेरे अहसासों से भी ऊपर उसका ज्ञान था
हृदय में बसता था मैं, मस्तिष्क पर उसका मान था
मुझसे ऊपर स्थान था उसका, मुझसे ज्यादा सम्मान था
मै शून्य था वो चेतना, साथ कहाँ आसान था
बंद आंखों से निहारता था उसको, चेहरे पढ़ने का उसको अभिमान था
योग में रमता था उसको, पर परिणामों में उसका ध्यान था
मै शून्य था वो चेतना, साथ कहाँ आसान था
ज्ञान प्रकाशित कर उसने एकरोज मुझे झझकोर दिया
भावों के गहरे सागर में बहने से मुझको रोक लिया
पाण्डित्य की प्रबलता थी उसमें, मेरा प्रेम कहाँ महान था
मै शून्य था वो चेतना, साथ कहाँ आसान था
मेरे अहसासों से भी ऊपर उसका ज्ञान था
"सावन"
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