उस फकीरी में भी क्या बात थी
कटी पतंग के पीछे
आधा मोहल्ला दौड़ जाया करते थे
बड़े लिहाज से बांधे थे सभी धागे हम
फिर भी कुछ
दूर जाते ही खुल जाया करते थे
ढीली रख कर डोर रेशम की
हम अर्श पर भी हुकूमत दर्ज कराया करते थे
उनकी आंखो को बस समझ नहीं पाए हैं अभी तलक
कभी रंग देख कर हम
मांझे की दुकान बताया करते थे।
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