Akash Sisodia   (आकाश सिसोदिया)
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Joined 28 November 2017


Joined 28 November 2017
24 MAR 2021 AT 12:58

मुर्दों सा अन्तर्मन लिए फिरता हुँ,
तन आज़ाद है पर मन बिका हुआ पाता हुँ,
आँखे तेज़ाब से मुंदी है,न कुछ देख पाता हुँ,
मैं मस्तिष्क में आक्रोशित विचार लिए फिरता हुँ,
आग पर चलकर ख़ुदको ठंडा पाता हुँ,
चित्ता पर बैठे मन को चिंतित देखता हुँ,
प्रश्नों पर सुनसान सी चुप्पी लेता हुँ,
अत्याचार पर नियति का दोष मलता हुँ,
आँख के पट्टी को खोलना चाहता हुँ,
पर पट्टी खोलने पर पूरे जग को अंधा पाता हुँ,
किस ख़ौफ़ में ये जग चुपचाप सहता हैं,
मैं हर बार इस जग को ग़ुलाम पाता हुँ,
मैं हर बार बंधी मन को मरा हुआ पाता हुँ,
हर बार उसी चित्ता की राख से मिलता हुँ।

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25 FEB 2021 AT 23:17

मैं तिलिस्म में फस गया हूँ
ब्रह्मांड में खोया एक ग्रह बन गया हूँ
मेरा दिमाग मुझे याद दिलाता है,
पूरी याद मानों एक भ्रम है,
लेकिन मन के अंतर्मन में कुछ हैं,
मैं सवालों से घिरता जा रहा हुँ,
अँधेरे मुझे जकड़ते जा रहें हैं,
पथ काँटों में तब्दील होता जा रहा हैं,
ख़ुद को चट्टान से भी भारी ,
रूई से भी हल्की भुजा को जी रहा हुँ,
हर चीज़ मानो तिलिस्म सी भिन्न हो गयी हैं,
मैं कहाँ हुँ ये ज्ञात तो नहीं,
पर शायद ये कोई ग्रह हैं?
या मेरे अंतर्मन का घर?

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24 FEB 2021 AT 12:25

तेरे इश्क़ में मैं चश्म-ए-बद दूर बन रखा,
तेरे अबसार-ए-अश्क़ में मैं बेज़ार हो रखा,

अब तेरे इक तबस्सुम पर निशार-ए-जिंदगीं,
मैं हर बार तेरे उल्फतों में ये जहाँ वार रखा,

मुनव्वर चिराग़ से वाकिफ़ हूँ पर तारीकी में कैद हुँ,
पर आज भी हुँ मैं इज़्तिराब तेरे अनकहे लब का,

शोर-गुल में आज भी हैरान ये दर-बदर सी ज़िंदगी,
मैं इश्क़ में ब-चश्म-तर हुँ तेरे उन अनकहे लब का।

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17 OCT 2020 AT 23:16

कलम जब बेफ़िक्री से सच को लिखेगी,
तब वो अपने अस्तित्व को बोध करा पाएगी।

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15 OCT 2020 AT 1:57

ताप सी सजी ग्रीष्म की धूप हो तुम,
गगन से उतरी ओस की बून्द हो तुम,
झरनों से उतरती निर्मल धारा हो तुम,
चांदनी में चकोर की अहसास हो तुम,
भगवान की शिल्पकारी कल्पना हो तुम,
बारिश में मिट्टी की सौंधी खुशबू हो तुम,
कृष्ण के बांसुरी की मधुर आवाज़ हो तुम,
डल झील की मशहूर शिकारा हो तुम,
रामेश्वरम की पावन शुभ आस्था हो तुम,
अलाहाबाद में नदियों की संगम हो तुम,

मेरे ह्रदय को मेरे शरीर से जोड़ती वो शिरा हो तुम,
मेरे स्वप्न को वास्तविकता से जोड़ती वो कड़ी हो तुम,
हमारी इस कहानियों की रोचक वो किस्सा सी हो तुम,
मेरे इस जीवन की लंबी यात्रा की भागीदारी हो तुम,
मेरी प्रिय तुम मेरे कलम से रची हुई कल्पना हो तुम।

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9 OCT 2020 AT 11:08

अनकहे शब्दों को ख़ुद में क़ैद मत करो,
उन्हें उकेरो पन्नों पर वो अमर हो जाएंगे।

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3 OCT 2020 AT 21:45

आँखें मौन,मुख अचंभित,
गगन घनघोर घटित,भू वंचित

पय निर्मल हैं,मन कुंचित,
रणभूमि रक्त से रंजित,अहिंसा वंचित,

कष्ठ से आहत जनहित,शासन लोभित,
अन्याय से जन पीड़ित,न्याय तिरोहित।

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29 SEP 2020 AT 21:37

ख़ामोशी शांत हैं,ख़ामोशी आक्रोश भी,
ख़ामोशी शुरुआत हैं,ख़ामोशी अंत भी,

ख़ामोशी आंदोलन हैं,ख़ामोशी क़ैद भी,
ख़ामोशी अंधेरा हैं,ख़ामोशी उगता सूर्य भी।

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26 SEP 2020 AT 0:06

नींद कहाँ जब आँखे बन्द,
जब ऑंखे बन्द तो वो कहाँ,
जिसे खोजत सारा जग,
मन-द्वेष-पीड़ा-शोक अंकों में सब,
लाश-समाँग सब लेखांकन,
मुद्दे सारे बन व्यर्थ,
बाढ़-महामारी को जग पूछे कब,
जब अदृश्य हो गया अवलोकन।

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25 SEP 2020 AT 11:18

आवाज़ों के शोर में,
मुद्दे गुमनाम हैं,
झूठों के शोर में,
सच्चाई गायब हैं,
लंबी भीड़ हैं,
परंतु संघर्ष पर विराम हैं,
होता आंदोलन हैं,
परंतु परिभाषा से अनजान हैं,
सब रंगमंच हैं,
सब कलाकार हैं,
दिखाया दृश्यम जाता हैं,
फिर पनपती नक़ली पहचान हैं।

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