Akarsh Kumar   (Kumar_Azad)
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Joined 28 November 2019


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Joined 28 November 2019
28 MAY 2023 AT 11:38

लोग कह रहे हैं परिंदों को कर के बे-पंख,
उड़ानों से दूर रखो, इन्हें आसमान खलते हैं।

कह रहे हैं दरख़्तों से नोच कर फूल-पत्ते,
वीरान हो चुके हों ऐसे क्यूँ बागबां दिखते हैं।

उम्रभर सींचते रहें लोग प्यार से घरों को,
न जाने क्यों फिर खाली अब मकान मिलते हैं।

मिल जाएँगे सपनों को पाने वालों से अलग,
वह लोग जो ख्वाबों में भी नाकाम रहते हैं।

लोगों के ज़िक्र में आओ, ये न करना मुक्तक,
सभी को भाने वाले हीं बदनाम रहते हैं।

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5 FEB 2023 AT 12:33

ये ज़माने की रंगो-बू क्या है, खुद से ये नाराज़गी क्या है
तन्हाइयों में ये शोर क्या है, महफ़िलों में मौन क्या है
कैसी विडंबना है कि मुर्दों में ढूँढ रहे हैं लोग गर्म ख़ून और
इसी उलटफेर में सबको सीधी लगने लगी है जिंदगी।

मैं अपने बुरे लम्हों में नज़र नहीं आता,
परछाईं से दूर भागता हूँ इस कदर कैद होना चाहता हूँ,
ना जाने कैसे मुस्करा के बिताते हैं लोग ये दौर
मैं आईने के सामने फिर नज़र भी नहीं उठा पाता हूँ।

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11 DEC 2022 AT 15:06

राजनीति लगे सौ या शून्य एक ही सिक्के में पाप और पुण्य
काम  से  ना  कर्मण्य अपराध  जघन्य  अवगुण  असंख्य।।

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27 NOV 2022 AT 10:51

बिगड़ जाते हैं सारे हिसाब,
प्यार के बदले प्यार न रहे
न रहता है इंसानों का मोल।

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26 NOV 2022 AT 17:43

संवारने में,
कितना मुश्किल है शब्दों का खेल।

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26 NOV 2022 AT 17:33

इस कदर तन्हा, बेबस छोड़ दिया है
कि हर कोइ बस नफ़ा तोल कर ही आता है,
फ़ायदा उठाना ज़माने भर के लोग जानते हैं
और कुछ यूँ की इंसान को इंसान नहीं छोड़ते है।

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3 OCT 2022 AT 11:56

जिन लोगों को कभी समझा नहीं गया,
वो समझे उन्हें सूखे पत्तों सा रौंदा गया।
जिन लोगों को लोगों ने समझा हर वक़्त,
उन्हें मेहसूस हुआ किसी फूल सा टूटा हुआ।।

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24 SEP 2022 AT 22:19

पिंजरा
पिंजरों की आदत हो गई है चिडियों को
प्रयास सफल हुआ पहरेदारों का,
आज एक पंछी उड़ना भूल गया है
पंख रह गए महज़ लिहाफ़ बन के।
वो पंछी प्रफुल्लित है ये सोच
कि फूलों सी नाज़ुक गर्दन बच गयी,
क्या हुआ जो पंख छीने गए है
उड़ना सीमित नहीं सिर्फ़ पंखों से
अतुलित मौके हैं विचारों से उड़ने को
पर सोच पनपती है आज़ादी में,
ज़ंजीर में ताकत होती है, सोच नहीं
अब पिंजरों की आदत हो गई है चिडियों को।

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5 SEP 2022 AT 18:29

मैं बुरे लम्हों में सफ़र करता हूँ
गिरता हूँ मग़र फिर चला करता हूँ,
अभी बचा है अक्स अँधेरी रातों का
मैं रातों को संवार लिया करता हूँ,
सिर्फ़ काले रंग से है कालिख अगर,
काले लिबास पर सफेद कालिख मानता हूँ।

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15 MAY 2022 AT 12:12

कागज़ों पर बिकते यहाँ कलम हैं जो,
कागज़ों पे लिखने वाले कलम नहीं ये।
क़तरा  पन्ने  का  या  ख़ून  का  हो
दास्तान लिखने वाले कलम नहीं ये।।

अंधों की आँख या बहरों के कान,
गूंगे की आवाज़ या सहारा बेज़ान का
दर्द को लिखने वाले कलम नहीं ये।
तख्तों के पैरों तले रौंदा गया है,
सियाही का कतरा कतरा निकला गाया है
सच्चाई लिखने वाले कलम नहीं ये।
आवाज़  दबाने  वाले  कलम  हैं  ये,
दरख्त को धूप लिखने वाले कलम है ये।।

तख्तों के  आगे  झुकते  हैं  जो,
उरूज पे रहने के लिए गिरते हैं जो,
आजमाइश को आराम कहने वाले
जुते  को  ताज़  समझने  वाले,
अंकों को दशमलव, शून्य को शतक
भूख को विलासिता, दशकों को पल
ग़ुलामी का जश्न मनाने वाले कलम है ये।।

कागज़ों पर बिकते यहाँ कलम हैं जो,
कागज़ों पे लिखने वाले कलम नहीं ये।

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