लोग कह रहे हैं परिंदों को कर के बे-पंख,
उड़ानों से दूर रखो, इन्हें आसमान खलते हैं।
कह रहे हैं दरख़्तों से नोच कर फूल-पत्ते,
वीरान हो चुके हों ऐसे क्यूँ बागबां दिखते हैं।
उम्रभर सींचते रहें लोग प्यार से घरों को,
न जाने क्यों फिर खाली अब मकान मिलते हैं।
मिल जाएँगे सपनों को पाने वालों से अलग,
वह लोग जो ख्वाबों में भी नाकाम रहते हैं।
लोगों के ज़िक्र में आओ, ये न करना मुक्तक,
सभी को भाने वाले हीं बदनाम रहते हैं।-
No mistakes doesn't mean you are the best, ... read more
ये ज़माने की रंगो-बू क्या है, खुद से ये नाराज़गी क्या है
तन्हाइयों में ये शोर क्या है, महफ़िलों में मौन क्या है
कैसी विडंबना है कि मुर्दों में ढूँढ रहे हैं लोग गर्म ख़ून और
इसी उलटफेर में सबको सीधी लगने लगी है जिंदगी।
मैं अपने बुरे लम्हों में नज़र नहीं आता,
परछाईं से दूर भागता हूँ इस कदर कैद होना चाहता हूँ,
ना जाने कैसे मुस्करा के बिताते हैं लोग ये दौर
मैं आईने के सामने फिर नज़र भी नहीं उठा पाता हूँ।
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राजनीति लगे सौ या शून्य एक ही सिक्के में पाप और पुण्य
काम से ना कर्मण्य अपराध जघन्य अवगुण असंख्य।।-
बिगड़ जाते हैं सारे हिसाब,
प्यार के बदले प्यार न रहे
न रहता है इंसानों का मोल।-
इस कदर तन्हा, बेबस छोड़ दिया है
कि हर कोइ बस नफ़ा तोल कर ही आता है,
फ़ायदा उठाना ज़माने भर के लोग जानते हैं
और कुछ यूँ की इंसान को इंसान नहीं छोड़ते है।-
जिन लोगों को कभी समझा नहीं गया,
वो समझे उन्हें सूखे पत्तों सा रौंदा गया।
जिन लोगों को लोगों ने समझा हर वक़्त,
उन्हें मेहसूस हुआ किसी फूल सा टूटा हुआ।।
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पिंजरा
पिंजरों की आदत हो गई है चिडियों को
प्रयास सफल हुआ पहरेदारों का,
आज एक पंछी उड़ना भूल गया है
पंख रह गए महज़ लिहाफ़ बन के।
वो पंछी प्रफुल्लित है ये सोच
कि फूलों सी नाज़ुक गर्दन बच गयी,
क्या हुआ जो पंख छीने गए है
उड़ना सीमित नहीं सिर्फ़ पंखों से
अतुलित मौके हैं विचारों से उड़ने को
पर सोच पनपती है आज़ादी में,
ज़ंजीर में ताकत होती है, सोच नहीं
अब पिंजरों की आदत हो गई है चिडियों को।-
मैं बुरे लम्हों में सफ़र करता हूँ
गिरता हूँ मग़र फिर चला करता हूँ,
अभी बचा है अक्स अँधेरी रातों का
मैं रातों को संवार लिया करता हूँ,
सिर्फ़ काले रंग से है कालिख अगर,
काले लिबास पर सफेद कालिख मानता हूँ।
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कागज़ों पर बिकते यहाँ कलम हैं जो,
कागज़ों पे लिखने वाले कलम नहीं ये।
क़तरा पन्ने का या ख़ून का हो
दास्तान लिखने वाले कलम नहीं ये।।
अंधों की आँख या बहरों के कान,
गूंगे की आवाज़ या सहारा बेज़ान का
दर्द को लिखने वाले कलम नहीं ये।
तख्तों के पैरों तले रौंदा गया है,
सियाही का कतरा कतरा निकला गाया है
सच्चाई लिखने वाले कलम नहीं ये।
आवाज़ दबाने वाले कलम हैं ये,
दरख्त को धूप लिखने वाले कलम है ये।।
तख्तों के आगे झुकते हैं जो,
उरूज पे रहने के लिए गिरते हैं जो,
आजमाइश को आराम कहने वाले
जुते को ताज़ समझने वाले,
अंकों को दशमलव, शून्य को शतक
भूख को विलासिता, दशकों को पल
ग़ुलामी का जश्न मनाने वाले कलम है ये।।
कागज़ों पर बिकते यहाँ कलम हैं जो,
कागज़ों पे लिखने वाले कलम नहीं ये।-