मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ..
बहुत मन करता है तुम्हें छूने का
हाथ पकडने का,
उंगलियों को तराशने का
तुम्हारी सांसों को तलाशने का..
न कभी छुआ है तुम्हें
न तुम्हारी खुशबू ले पाई हूँ
तुम्हारी चिठ्ठियों के सहारे ही
खुदको संवार पाई हूँ
छुआ है तुम्हें उन्हीं के सहारे
उन्हीं के सहारे
हर दिन गुज़ारती आई हूँ..
पता नहीं तुमसे मिलना कैसा होगा
दिल बहेगा या सिमट कर रह जाएगा
क्या कुछ देख पाऊॅंगी?
तुम्हें सुनने के बाद कुछ बोल पाऊँगी?
शायद बस यादें बुनती रह जाऊँगी..
जब वक्त आएगा तुमसे विदा लेने का,
क्या देख पाऊॅंगी तुम्हें जाते हुए?
या करुॅंगी खुद को तैयार
बिस्तर पर सिमटी रातों के लिए..
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