एक भ्रम संजोया था जीने के लिए,
वो हादसा बन अब डराने लगा है।
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तुम्हारे भटक जाने पर तुम्हें ढूंढ लाना फ़िर भी सरल था,
पर तुम्हारे स्वेच्छा से चले जाने पर, मैंने प्रतीक्षा की किवाड़ बंद करना ज़रूरी समझा।
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मंज़िल तक साथ पंहुचने का तो वादा भी न था,
हम यूँ ही राहों में मुकम्मल साथ तलाशते रहें।
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मुद्दत हुए उसे क़रीब से देखे,
कुछ अलग हैं आजकल किरदार उसके,
कहता तो है कि वो बदला नहीं,
पर अब उतना अपना लगता नहीं।
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हमारा मिलना महज़ इत्तेफ़ाक़ तो न था, तुम थोड़ा ठहर जाते तो बेहतर होता,
यूँ हमारा साथ चलना मुमकिन तो न था, तुम हाथ थाम लेते तो बेहतर होता,
तुम्हें अपलक निहारना मेरा शौक तो न था, तुम मुस्कुरा देते तो बेहतर होता,
रोज़ तुमसे मिलने की आरज़ू मेरा फितूर तो न था, तुम पास बैठ जाते तो बेहतर होता,
यूँ मेरा तुमसे इश्क़ मुनासिब तो न था, तुम ये सिलसिला ज़ारी रख लेते तो बेहतर होता।
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Sometimes you just need an outer storm
to kill the one residing inside.
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पुरानी यादों की ईंटों से नहीं बनते खुशियों के महल,
उनसे बनते हैं टूटे ख्वाबों के मकान,
और उजड़ी उम्मीदों के खंडहर।
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कितना मुश्किल है उन नज़रों को भुला पाना,
हर रोज़ नई आजमाइश,
हर बार वही शिकस्त।
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I hate this phase of growing up,
Where everyday looks like a Sunday on the calendar,
But feels like Mondays in the spirit.
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बार-बार टूटने पे थोड़ी मरम्मत कर लेते हैं दिल की,
ये ज़िंदा तो रहता है,
पर पहले जैसे धड़कता नहीं।
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