पिछड़े हुए गावों की बच्चियां अपना नाम लिखने से पहले नमक का सही अनुपात और रोटियां गोल बनाना सीख जाती हैं,
उन्हें रोजी के मायने तो नहीं पता पर रोटी का बखूबी जानती हैं।
यहां रोजी से मेरा मतलब विद्या अर्जन से है और रोटी गृहस्थ ज्ञान से।
उन्हे कच्ची उम्र से ही घर संभालना सिखाया जाता है ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मण घरों में बालको का जनेऊ संस्कार होता है।
यहां मैने पिछड़ा गांव इसलिए कहा कि जिन गांवों ने तरक्की कर ली है उन्हे रोजी और रोटी दोनो के मायने पता हैं ,अब उन गांव की बच्चियां विद्यालय भी जाती हैं और गृहस्थी संभालने में मां की मदद भी करती हैं। वो स्वयं को हर परिस्थिति से भिड़ने योग्य समझती हैं चाहे वो जीविका के लिए धन अर्जन हो या सरकारी दफ्तर के भागदौड़ या बैंक या फिर अस्पताल ,उन्हे दहलीज के बाहर की दुनिया अजनबी सी नहीं लगती है अब...।।-
Every writing is not just a writing ,
but
its a moment of life
which keeps those moments as a reminder...-
वो गुनगुनाती हैं
पुकारती हैं
शोर करती हैं
लोरी बन सुलाती हैं
आंसुओं संग भीगती हैं
खुशियों संग खिलखिलाती हैं
सफ़र में साथ चलती हैं
हौसला बन जाती कभी
कभी शांत जल सी बहती हैं
अनकहे का शब्द बन जाती कभी
कभी मुस्कुराहट से घाव भर जाती हैं
वो आवाजें हर रूप, हर रंग में ढल जाती हैं
बस मरती नहीं हैं.....— % &-
कितना हौसला होगा उस एक कहानी को...
जो मन में घुमड़ती अनगिनत कहानियों को पीछे छोड़,
कागज पर उतरने का फैसला करती है....
जैसे समाज से हर बंधन को खोल, कोई नारी मंच पर आती है....
अपने पूरे आत्मविश्वास और सम्मान के साथ...-
बारिश की कुछ बूंदे साथ लाई हूं जो,
उस बूढ़े पेड़ को अंतिम विदाई देने आई थी,
बिखर गई थी उसकी जड़ों की जगह एक बड़ा गड्ढा देखकर,
उनमें से कुछ को समेट लाई हूं,
बारिश की कुछ बूंदे साथ लाई हूं...।
पेड़ तब से साथी रहा था उनका जब वो एक नन्हा पौधा था,
अपनी नर्म खिले पत्तों पर बड़े प्यार से बिठाया था उन्हे,
खेलती इठलाती वो दिन दिन प्रगाढ़ता बढ़ती जाती,
उन खुशियों की थोड़ी खनक जोड़ लाई हूं,
बारिश की कुछ बूंदे साथ लाई हूं...।।
हर सावन आने का वादा लेकर जाती,
इस बार जरा देर करदी आने में,
सूखे की मार अबकी न झेल पाया वो बूढ़ा पेड़,
आरियों से कटी शाखाएं ट्रकों में लदी जा रही थी,
उन शाखाओं पर बेसुध पड़ी लड़ियां चुन लाई हूं,
बारिश की कुछ बूंदे साथ लाई हूं...।।।-
हम अपने दुःख की पोटली
उसी के सामने खोलते हैं
जो सक्षम होता है
हमारे दुःख में भागीदार होने में
अथवा इसे दूर करने में...-
नहीं चाहिए मुझे गांधी वाला देश,
जहां कायरता छुपकर आए
धर अहिंसा का भेष...।
नहीं चाहिए मुझे मेरा देश शस्त्रहीन
भाईचारे के नाम पर जो बनाए हीन...।।
नहीं चाहिए मुझे कोरे ज्ञान वाली धार
जो दिखाए राह आडंबर,नितांत निराधार,
शस्त्र - सुसज्जित शास्त्र भी रखे साथ..
जो कराए आत्मरक्षा का भाष..।।।
नहीं चाहिए शांतिप्रिय का नाद करता पाखंड
धर्म के नाम पर टुकड़ों में बंट करता आतंक...।।।।-
तुमने सीखा नही प्रेम में 'हम' हो जाना
मेरा प्रेम,
मेरी जरूरतें,
मेरे सपने,
मेरी उम्मीदें,
'तुम' को हमेशा
'तुम' ही रखा
तुम्हे कहना चाहिए
तुम्हे करना चाहिए
तुम्हे सोचना चाहिए
कभी कहा ही नहीं
हम संभाल लेंगे
हम झेल लेंगे
हम देख लेंगे
फिर प्रेम किसका रहा
तुम्हारा..
मेरा...
या हमारा ...??-
रास्ते के पेड़ और
घर के बूढ़े
एक जैसे ही होते हैं
दृढ़, निश्छल
और उपेक्षित...।
उनके होने की अहमियत
तब समझ आती है
जब उनके अस्तित्व को व्यर्थ
समझकर मिटा देते हैं...।।-